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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
तथा बाद में जैन बनाकर अलग-अलग गोत्र दिये । यह बात अनेक पट्टावलियों से ज्ञात होती है।
कालिकाचार्य निमित्तशास्त्र के बड़े पंडित थे, वे बड़े ग्रंथ कर्ता भी थे, महाप्रभावक, महासमर्थवान, उच्च प्राचार मोर विचार सम्पन्न थे। इसलिये आपका भावडार प्रथवा भावड़ा गच्छ होने से इस जनपद का प्रोसवाल समाज भाबड़ा कहलाया । कालिकाचार्य का भाबड़ा गच्छ होने के प्रमाण अनेक प्रतिमा---लेखों में उपलब्ध है । यथा
१-सं० १५०३ वर्षे माग्गं वदि २ शनी श्री भावडार गच्छे श्री कालिकाचार्य सताने श्रीश्रीमाल सा० हमीर दे पुत्र प्राका भार्या कोई पु० कर्मण धीरा उधरण नरभय छांछां स्वपण्यार्थ श्री वास (सु) पूज्य बिंब कारित श्री वीरसूरिभिः । (प्राचीन लेखसंग्रह लेख नं० १९२)
२-सं० १५३६ वर्षे प्राषाढ़ सुदि ६ भावडार गच्छे प्राग्वाट तीनावी गोत्रे मं० माकड़ भा० धीरो पु० राघव भा० पूरी पु० धारणा भा० जेठी पु० सहसकिरण माँगा भा० पुतलीमती पुण्यार्थं श्री सुमतिनाथ बिंब का० प्र० कालिकाचार्य संताने श्री भावदेव सूरिभिः (लेख नं० ५७३प्राचीन लेखसंग्रह भाग १ सं० विजयधर्म सूरि)
भावड़ा गच्छ विक्रम की १७वीं शताब्दी तक विद्यमान था ऐसा प्रतिमालेखों से प्रमाणित होता है। उपर्युक्त लेखों में कालिकाचार्य का भावडार-भावड़ा गच्छ कहा है।
(इ) राजस्थान में भी वि० १२ वीं शताब्दी से भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने प्रोसवाल प्रादि जैन बनाये ऐसे प्रमाण पट्टावलियों और वंशावलियों में मिलते हैं। एवं भिन्नभिन्न अनेक प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रदेशों और नगरों में राजपूत (क्षत्रीय) ब्राह्मण, वैश्य जातियों को प्रतिबोध देकर जैनी बनाया और उनके अलग-अलग गोत्र देकर सब को एक समाज के रूप में संगठित किया, जिसकी संज्ञा महाजन दी। महाजन का अर्थ है महान जन अर्थात् जिस जाति के प्राचार और विचार महान हैं ऐसे जन-मनुष्य महाजन के नाम से प्रख्यात हए । पीछे जाकर ये प्रोसवाल, पोरवाल, श्रीमाल, श्रीश्रीमाल आदि अनेक जैन जातियों के नाम से प्रसिद्धि पाये।
(५) उमरकोट एक समय जैनों का मुख्य केन्द्रस्थान था। पाकिस्तान बनने से पहले तक यहाँ एक श्वेताम्बर जैन मन्दिर और १५-२० घर जैनों के थे।
(६) मारवाड़ की हकूमत में गिना जाने वाला जूना (पुराना) बाड़मेर और नया बाडमेर पहले सिंध में थे । ये भी एक समय जैनधर्म की जाहोजलाली वाले स्थान थे । ऐसा वहाँ के मन्दिर और प्राचीन शिलालेख प्रत्यक्ष बतला रहे हैं।
(७) आचार्य रत्नप्रभ सूरि द्वितीय ने वि० पू० २१२ में लोहाकोट (लाहौर) में चौमासा किया ।
(E) प्राचार्य रत्नप्रभ सूरि तृतीय ने पंजाब में स्यालकोट, तक्षशिला, शालीपुर में विचरण किया। यहाँ के महादेव मंत्री ने वि० सं० ११५ में सम्मेतशिखर का संघ निकाला । वीरपुर के राजकुमार ने दीक्षा ग्रहण की, इनका नाम प्राचार्य पदवी के बाद यक्षदेव सूरि हुआ।
(६) प्राचार्य यक्षदेव सूरि तृतीय ने वि० सं० १५० में उच्चनगर में राव मालदे के बनाये हुए श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा की और शिवनगर में चौमासा किया। राजकुमार
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