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________________ सिंधु-सौवीर में जैनधर्म १८७ बनाए हुए जनमंदिर की प्रतिष्ठा कराई । मरोटकोट (मरुकोट) जिला फिरोजपुर पंजाब के किले की खुदाई करते हुए नेमिनाथ भगवान की मूर्ति निकली थी। उस समय यहां का राजा काकू था। उसने श्रावकों को बुलाकर मूर्ति दे दी। यहाँ के श्रावकों ने एक सुन्दर मन्दिर बनवाया और कक्क सरि द्वारा उसकी प्रतिष्ठा कराई । कक्क सूरि पार्श्वनाथ की परम्परा के आठवें आचार्य थे। वर्तमान पाकिस्तान के नगर मुल्तान तथा बहावलपुर से भी मरुकोट (मरोटकोट) पास ही पड़ता है। (४) विक्रम राजा के गद्दी पर आने से पहले की एक घटना इस प्रकार है मालवे की राजधानी उज्जयनी का राजा गर्द्ध भिल्ल महा-अत्याचारी था । वह जैन साध्वी का अपहरण करके अपने महलों में ले गया। यहां के जनसंघ ने गर्द्ध भिल्ल को बहुत समझाया लेकिन वह माना नहीं। उस समय के महान् जैनाचार्य कालिकाचार्य ने भी उसे बहुत समझाया कि वह उसे छोड़ दे, पर वह हरगिज़ नहीं माना । सरस्वती साध्वी कालिकाचार्य की बहन तथा उन्हीं की शिष्या थी। आखिर में कालिकाचार्य ने दृढ़ प्रतिज्ञा की और कहा कि-राजन ! जब तक तुम्हें पदच्युत न कर दूंगा तब तक चैन से न बैलूंगा। जैनाचार्य प्रजा के पितृ तुल्य होते हैं इसलिए राजा का यह अत्याचार सहन नहीं कर सके। राजा की पाशविकता से प्रजा की बहन बेटियों की पवित्रता कलंकित होती देखकर वे चुप कैसे बैठ सकते थे ? उन्होंने उज्जयनी को छोड़ा और अनेक परिषहों को सहते हुए सिंध-पंजाब में पाए । सिन्धु नदी को पार करके वे शकस्तान में पहुंचे और वहां शक राजा से मिले । ये राजा साखी 'सिथियन' नाम से प्रसिद्ध थे । सिकन्दर के बाद सिथियन लोगों ने सिंध जीता था। कालिकाचार्य भिन्न-भिन्न स्थानों के ६६ साखी (शक) राजाओं से मिले और उन्हें मालवा तथा दूसरे प्रांतादि दिलाने की शर्त पर सौराष्ट्र होते हुए मालवा में ले पाए । साखी राजानों की सेना ने कालिकाचार्य की अध्यक्षता में गर्द्धभिल्ल से युद्ध किया और उसे पराजित कर उसके राज्य पर साखी राजामों का अधिकार स्थापित किया और जैन साध्वी को मुक्त कराया । स्वयं प्रायश्चित लेकर साधुचर्या को निरातिचार पालने में दृढ़ बने रहे। ये कालिकाचार्य श्वेताम्बर जैनाचार्य थे। इस अवसर पर उनके पंजाब, सिंध, इरान आदि प्राने से पहले से ही इन जनपदों में बहुत संख्या में प्रोसवाल आदि श्वेताम्बर जैन महाजन सर्वत्र प्राबाद थे। कालिकाचार्य का गच्छ भावड़ार अथवा भावड़ा था। कहा जाता है कि वीर निर्वाण संवत् ७० (विक्रम संवत् से ४०० वर्ष पहले) राजस्थान में जोधपुर के समीप उपके शपुर (प्रोसिया) में राजपूतों को पार्श्वनाथ संतानीय श्री रत्नप्रभ सूरि ने जैनधर्मी बनाकर श्रावक-श्राविकाएँ बनाया था परन्तु ओसवाल समाज का कहां और कब निर्माण हुमा इसका इतिहास उपलब्ध नहीं है। मानदेव सरि तथा अनेक अन्य जैनाचार्यों ने पंजाब और सिंध में भी प्रोसवाल बनाये थे इसके समर्थन में भनेक प्रमाण मिलते हैं। (अ) पार्श्वनाथ संतानीय अनेक आचार्यों ने पंजाब-सिंध में जैन बनाये और उन्हें अलगअलग गोत्र दिये । आज भी वे सब गोत्र ओसवाल जातियों में विद्यमान हैं। (आ) भगवान महावीर के १९वें पाट पर लघुशांति के कर्ता श्री मानदेव सूरि ने उच्चनगर तक्षशिला आदि में प्रोसवाल जैन बनाये । इस प्रकार अनेक प्राचार्यों ने भगवान महावीर से पहले 1. फिरोजपुर जिले के दो वर्तमान नगर मलोट तथा हिन्दू मलकोट नगरों में से कोई एक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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