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________________ १८६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म शीर्ण हो गया है । अंग्रेज़ी सरकार ने इसकी मुरम्मत कराई थी। मंदिर के निकट एक भोयरा भी है। उसमें उतरने की प्राज से लगभग ६० वर्ष पहले नगरठट्ठा के असिस्टेण्ट इन्जीनियर श्रीयुत फतेहचन्द जी बी० इदनाणी ने कोशिश की थी, पर वहाँ के भीलों के भय बतलाने से वह यहाँ उतर नहीं पाया। गौड़ी जी के मंदिर के कोट वगैरह के पत्थर उमरकोट के एक सरकारी बंगले के बरांडे आदि में लगे हुए हैं। विक्रम की १७ वीं शताब्दी में बने हुए एक स्तवन में सूरत से एक संघ के निकलने का वर्णन है। संघ अहमदाबाद, पाबू, संखेश्वर, राधनपुर होता हुआ सोई जो सिंध में जाने के लिए गुजरात की सीमा पर अंतिम बांध है, वहाँ से रण पार कर सिंध की तरफ गया था। परन्तु वहाँ से आगे बढ़ने के लिए बहुत ही कठिन लगने से वहाँ ही गौड़ी पार्श्वनाथ की भावपूर्वक स्तुति की। गौड़ी पार्श्वनाथ ने वहाँ दर्शन दिये । संघ खुश हुअा, उसने वहाँ चार दिन स्थिरता की और उत्सव किया। पीलु के वृक्ष के नीचे गौड़ी पार्श्वनाथ के चरणबिंब स्थापित किये । तत्पश्चात् संघ वहाँ से राधनपुर चला गया। सिंध के नगर पार कर तथा गौड़ी आदि गुजरात की कच्छ सीमा के बहुत निकट हैं। इसके सिवाय प्राचीन तीर्थमाला में भी गौड़ी जी का मुख्य स्थान सिंध ही कहा है। ई० सं० १९७१ में ये स्थान एक वर्ष तक भारत के अधीन रहे थे। धर्मयुगादि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में इन नगरों के जैन मंदिरों के चित्र भी छपे थे । (धर्मयुग जनवरी से मई सन् १९७२ ईस्वी)। आज तो गौड़ी पार्श्वनाथ जी की मूर्तियाँ अनेक नगरों के जैन मंदिरों में विराजमान हैं। __ प्राचीन पट्टावलियों और प्रशस्तियों में जनसाधुनों के सिंध में विहार करने के पुष्कल उल्लेख मिलते हैं। सिंधु नदी के दूसरी पार मारीइंडस है वहाँ पर नागरगाजन (नागार्जुन) नामक पहाड़ है। उस पहाड़ की एक टेकरी पर गुफा की धरती में से अतिप्राचीन महाचमत्कारी एक प्रतिमा प्राप्त हुई थी, वहाँ पर जैन श्वेतांबर मंदिर का निर्माण हुआ । जब वह देश एकदम म्लेच्छों के हाथ में चला गया तब उस प्रतिमा को पद्मावती देवी खंभात ले गई थी। सिंध में जैनाचार्यों और जैनमुनियों आदि के विहार (१) तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर सिंध में वीतभयपत्तन आदि में भी विचरे थे। (२) लगभग चार सौ वर्ष विक्रम पूर्व श्री रत्नप्रभ सूरि के शिष्य श्री यक्षदेव सूरि सिन्ध में पाये । शिवनगर में चौमासा किया। आपके उपदेश से यहाँ के राजा ने एक आलीशान जैन मंदिर बनवाया जिसमें भगवान महावीर की प्रतिमा विराजमान की । इसकी प्रतिष्ठा भी प्राचार्य श्री ने कराई । चतुर्मास के बाद यहाँ के राजा रुद्राट तथा उसके छोटे पुत्र ककव राजकुमार ने लगभग १५० नरनारियों के साथ दीक्षा ली । यक्षदेव सूरि ने इस जनपद में अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठाएँ करवाई। यहाँ से शजय का छरी पालता संघ निकाला। कक्कव राजकुमार ने दीक्षा ली उसका नाम कक्क रखा गया और प्राचार्य पद देकर उन्हें अपना पट्टधर बनाया। नाम कक्क सूरि रखा । (३) यही कक्क सूरि पुनः शिवपुर अपने ५०० शिष्यों के साथ पधारे। प्राचार्य रत्नप्रभ सूरि (द्वितीय) ने विक्रम पूर्व २१३ में पंजाब के लाहौर नगर में चौमासा किया और धनपाल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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