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________________ १७५ कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म मूर्तियाँ) जो लगभग ४०० के करीब हैं खुदाई से प्राप्त हुई हैं । ये खण्डहर और मूर्तियां २८३ मील लम्बे क्षेत्र में फैले हुए हैं । यदि इस सारे क्षेत्र की खुदाई की जावे तो बहुत अधिक मूर्तियां तथा इनके टुकड़े पाये जा सकते हैं। प्राप्त मूर्तियां अधिकतर शिवधर्म और जैनधर्म की हैं। इनमें कई तो बहुत ऊंची कलापूर्ण हैं ।। सरकारी पुरातत्त्व विभाग चंडीगढ़ से भी मालूम हुआ है कि इस क्षेत्र में जैनतीर्थंकरों की बहुत मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। संघोल (Sanghol) --उच्चापिंड के नाम से प्रसिद्ध है। यह समराला तहसील में है। चंडीगढ़, समराला लुधियाना रोड पर एक ऊंचे टीले पर बसा है। यह टीला ७०,८० फुट का है। इसीलिए इसका नाम उच्चापिंड प्रसिद्ध हो गया है । यहाँ की खुदाई से हाथीखाना, राजमहल तथा जैन श्वेतांवर प्रतिमाए और सिक्के निकले हैं । संघोल को प्राचीनकाल में संगलदीप कहते थे। शतसंग की राजधानी होने से संग के नाम से संगलदीप नाम पड़ा। ८-नगरकोटिया गच्छ और कोठीपुरा गच्छ जैन साहित्य संशोधक त्रैमासिक पत्रिका श्री जिनविजय जी द्वारा संपादित में प्रकाशित जो "वि. संवत् १८३१ वर्षे मिति द्वि०० ३०दिन को लिखी गई है वहां ८४ गच्छों की नामावली से ज्ञात होता है कि श्वेतांबर जैन साधुओं के चौरासी गच्छों में १-नगरकोटिया गच्छ तथा २-कोठीपुरा गच्छ भी थे। इससे यह ज्ञात होता है कि नगरकोट (कांगड़ा) और कोठीपुर नाम का एक नगर जो पहाड़ की चोटियों से घिरा हुआ था के क्षेत्रों में जैनों की और जैनमंदिरों की बहुत बड़ी संख्या थी और इन क्षेत्रों में जैन श्वेतांबर साधु-साध्वियाँ भी सदा आते-जाते रहते थे तथा निवास करते थे । अतः कांगड़ा क्षेत्र में विचरणे वाला श्रमणसंघ नगरकोटीया गच्छ के नाम से और कोठीपुरा क्षेत्र में विचरणे वाला श्रमणसंघ कोठीपुरा गच्छ के नाम से प्रसिद्धि पा गये थे । अब तो ये दोनों गच्छ विद्यमान नहीं हैं । न तो इन गच्छों के प्राचार्यों, मुनियों आदि के नामों तथा कार्यकलाप के विषय में जानकारी प्राप्त है एवं न ही इस गच्छवालों द्वारा रचित साहित्य तथा प्रतिमाओं, मंदिरों की प्रतिष्ठानों का कोई विवरण पाया गया है । न जाने ये गच्छ कब बने और कब समाप्त हो गये। अथवा किस गच्छ में शामिल हो गये। नगरकोट (कांगड़ा) तीर्थ की यात्रा करने वाले ऊदा जो तोला के पुत्र थे साहित्य, कवि, और इतिहास के प्रेमी थे। उन्होंने अपनी यात्रा का उल्लेख करके ज्वालामुखी प्रासाद का भी उल्लेख किया है वि. सं. १५७० फाल्गुण सुदी ४ के दिन मंगलवार अश्विनी नक्षत्र में नगरकोट तीर्थ के 1. हम लिख आये हैं कि शिव और ऋषभ भारत में प्राग्वैदिक काल के उपास्य देव हैं। ये दोनों अर्हत् ऋषभ के ही रूप हैं। हमारी इस मान्यता की पुष्टि इस लेख से भी हो जाती है। तथा २८३ मील क्षेत्र में प्राचीन जैनमूर्तियों के अवशेष पाये जाने से यह भी निविवाद सिद्ध हो जाता है कि जैनधर्म विश्व में सबसे प्राचीन है, तथा पंजाब में भी और सर्वत्र प्राग्वैदिक काल से ही यह मूर्तिपूजा की मान्यता वाला चला आ रहा है। 2. इन सब स्मारकों के विषय में शोधखोज की आवश्यकता है। सरकार और जैनसमाज को इस ओर पूरा पूरा ध्यान देना चाहिए। 3. जैन साहित्य संशोधक खंड ३ अंक १ पृष्ठ ३२ गच्छ संख्या ६७ और ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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