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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म आदिनाथ और अंबिकादेवी के मंदिर की यात्रा की थी। राजगच्छ के यतियों और प्राचार्यों का विहार नगरकोट के आसपास होता रहा है और वहां अनेक स्थानों में जैनों के बहुत से घर थे। अगरचन्द नाहटा को एक अति प्राचीन हस्तलिखित गुटका मिला है जिस में यहां के राजाओं की वंशावली पद्य में लिखी हुई है। उनमें से कई राजा जैनी थे तथा कुछ जैनधर्म के प्रति सदभाव रखने वाले थे। हर्ष का विषय है कि वर्तमान में कांगड़ा के किले में जो एक मात्र श्वेतांबर जैनों की श्री आदिनाथ भगवान को भूरे (ग्रे कलर) की पाषाण की विशाल प्रतिमा जिसके कंधों पर केश लटकते हुए अंकित हैं किले सहित (जो वास्तव में बावन जिनालय था) पंजाब (हिमाचल) सरकार के पुरातत्त्व विभाग के अधिकार में है। उस प्रतिमा को किले के एक मंदिर को मरम्मत कराकर विराजमान कर दिया है और वि. सं. २०३५ में कांगड़ा में तपागच्छीय श्वेतांबर जैन परम्परा के आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी की आज्ञावर्ती कांगड़ा तीर्थोद्धारिका, महत्तरा साध्वी श्री मृगावती ने अपनी तीन शिष्याओं के साथ चतुर्मास किया और उन के सद्प्रयत्नों से पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों तथा हिमाचल की सरकार से प्रतिदिन इसकी पूजा-प्रक्षाल तथा आरती उतारने का अधिकार श्वेतांबर जैनों को प्राप्त हो गया है। मंदिर पर ध्वजा चढ़ाने की अनुमति भी मिल गई है। कई वर्षों से इस प्राचीन तीर्थ की विशेष रूप से पूजा, सेवा यात्रा, भक्ति के लिए होली के अवसर पर मिति फाल्गुण सुदि १३,१४. १५ को वहाँ मेला भरता है । यहाँ किले के समीप जैन धर्मशाला का तथा नवीन जैनमंदिर का निर्माण भी चालू है। ह-नन्दनवनपुर (नादौन) में रचित जैन विधि-विधान का ग्रंथ खरतरगच्छीय रुद्रपल्लीय शाखा के आचार्य श्री वर्धमान सूरि ने नन्दनवनपुर में राजा अनन्तपाल के राज्य में वि. सं. १४६८ में दीवाली के दिन जैन-विधि-विधान के सब से बड़े ग्रंथ "आचार दिनकर" की रचना सम्पूर्ण की थी। ग्रंथकार इसका स्वयं अपनी प्रशस्ति में परिचय देते हैं । पुरे नन्दनवनाख्ये, श्री जालंधर भूषणे । अनन्तपाल भूपाल राज्ये कल्पद्रुमोपमे ॥ २७ ॥ श्री मद्विक्रम भूपालाद् अष्टषण्मनु (१४६८) संख्यके । वर्षे कातिकायां ग्रंथोऽयं पूर्तिमाययौ ॥ २८ ॥ यह ग्रंथ लगभग ७५०० श्लोक का संस्कृत भाषा में है । कुल ४१ अधिकारों में यह ग्रंथ समाप्त हुआ है। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि सारे हिमाचल प्रदेश में जैनमंदिरों और जैनतीर्थों का जालसा बिछा हुआ था । आज भी इस पर्वतीय क्षेत्र में जैनमंदिरों के खंडहर तथा जैन तीर्थंकरों, जैनशासन-देवी-देवताओं, जैनमंदिरों के क्षेत्रपाल-देवों की खंडित अखंडित मूर्तियां सर्वत्र पाई जाती हैं। यह भी स्पष्ट है कि सारे क्षेत्र में प्राचीन काल से ही जैनधर्म का प्रसार और प्रभाव था। जैनमूर्तियां इस क्षेत्र में प्राज जैनेतर लोगों द्वारा अपने उपास्य देवी-देवताओं के रूप में पूजी जा रही हैं। कहीं-कहीं पर तो पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर फण होने से इन्हें नाग देवता के रूप में पूजा जाता है। इस क्षेत्र में प्राचीनकाल में जैनों की घनी आबादी थी। श्रमण श्रमणियाँ इस क्षेत्र में सदा विचरते रहते थे जिससे जैनधर्म खूब फलता और फूलता रहा। आज तो अनेक स्थानों पर इन मूर्तियों को जैनेतर लोग अपने देवी-देवताओं के रूप में मान कर इनके सामने पशुओं की बलि भी देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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