________________
कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म
१६५
और उत्साहपूर्वक हुए। जिनमन्दिरों में विविध प्रकार के महोत्सव और पूजा आदि कार्यों में संघ ने १० दिन व्यतीत किये । पश्चात् संघ यहाँ से फरीदपुर के लिए रवाना हो गया। रास्ते में अनेक नगरों और ग्रामों को लांघता हुमा संघ सकुशल वापिस फरीदपुर पहुंच गया।
इस उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि जालंधर-त्रिगर्त के सारे जनपद में अनेक गांवों और नगरों में जैनमंदिर तथा तीर्थं थे एवं इनको माननेवाले भी बहुत संख्या में जनपरिवार आबाद थे।
___यात्रासंघ ने मात्र उन्हीं मंदिरों और तीर्थों की यात्रा की, जो उसके मार्ग में पड़ते थे। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इस क्षेत्र के अन्य नगरों और गांवों में जैनमंदिर नहीं थे। रास्ते में अनेक छोटे बड़े जैनमंदिरों के दर्शन भी अवश्य किये होंगे। इस बात की पुष्टि हम आगे लिखेंगे।
इस यात्रासंघ के कांगड़ा के पांच1 मदिरों तथा अन्य पांच तीर्थो2 (पंचतीर्थी) की यात्रा का विवारण दिया है। - जयसागरोपाध्याय ने विक्रम संवत् १४८३ का चौमासा सिंध के मम्मनवाहन नगर में किया। चौमासे बाद संघपति सोमा के पुत्र अभयचंद्र ने मरुकोट (वर्तमान मरोट नगर पाकिस्तान में) महातीर्थ की यात्रा के लिए संघ निकाला। उपाध्याय जयसागर जी भी अपने मुनिमंडल के साथ इस संघ से शामिल थे । संघ यात्रा करके वापिस मम्मनवाहन में आया । इस यात्रा के बाद उपाध्याय जी अपने मुनिमंडल के साथ फरीदपुर गये। वहां से मुबारषपुर गये (वर्तमान में मुबारकपुर) जहाँ जैन श्रावकों के १०० घर थे । सा० शिवराज नामक श्रावक ने अपने पिता हरिशचन्द्र सेठ के साथ मिलकर बड़ा संघवात्सल्य किया और बड़े भारी ठाठ-बाठ के साथ आदि जिन (श्री ऋषभदेव) की प्रतिमा की प्रतिष्ठा जयसागरोपाध्याय से करवाई। उपाध्याय जी मलिकवाहन भी पधारे वहाँ भी श्रावकों ने बड़ी सेवाभक्ति की।
वि० स० १३४५ में उच्चनगर (सीमाप्रांत) से श्री दूगड़ जी की चौदहवीं पीढ़ी के श्री हरिश्चन्द्र ने कांगड़ा की यात्रा की।
अन्य दो चार संघों सहित कांगड़ा की यात्राओं का परिचय दिया जाता है। जिससे अनेक मंदिरों के विषय में भी कुछ प्रकाश पड़ेगा।
(१) नगरकोट चैत्यपरिपाटी वि० सं० १४६७, (२) श्री नगरकोट तीर्थ विनती वि० सं० १४००; (३) नयचन्द्र सूरि कृत विनती वि० सं० १४२२-४०, (४) अभयचन्द्र गणि कृत नगरकोट की विनती वि० १७ वीं शताब्दी इत्यादि में इस प्रकार वर्णन मिलता है1. (1) खरतरवसही, (2) पेथड़वसही, (3) रायविहार (सोवनवसही), (4) आलिगवसही,
(5) गिरिराजवसही, (6) अंबिकादेवी का मंदिर थे। जिनकी यात्रा संघ ने कांगड़ा में की। 2. (1) गोपीचलपुर, (2) नन्दनवनपुर, (3) कोटिलग्राम (4) कोठीपुर और (5) देपालपुर इस
पंचतीर्थी की यात्रा भी संघ ने की। 3. यह विज्ञप्ति त्रिवेणी का सार (संक्षिप्त वर्णन) है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org