SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म इस मन्दिर का नाम गिरिराजवस ही था। जिसका अर्थ होता है कि पर्वत पर राजा द्वारा निर्मित जैनमंदिर। (५) संघ को राजा नरेन्द्र चन्द्र ने अपना निजी देवागार (जैनमन्दिर) दिखलाया जिसमें मणियों, रत्नों तथा स्फटिक आदि की चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां थीं। इस मन्दिर के दर्शन करके संघ बहुत हर्षित हुआ । यह मन्दिर प्रालिगबस्ती के नाम से प्रसिद्ध था। (इस मन्दिर का निर्माण राजा रूपचन्द्र ने ईसा की १४ वीं शताब्दी में कराया था) तीसरे दिन संघ ने शहर के तीनों और किले के युगादिदेव के जैनमन्दिरों में बड़े ठाठ-बाट से पूजाएं रचाई। नगरकोट में संघ १० दिन रहा । पश्चात् संघ ने अपने नगर को वापिस जाने के लिये प्रयाण किया। रास्ते में जो-जो जैनमन्दिर और तीर्थ आये उनकी यात्रा करते हुए आगे बढ़ा। (६) संघ गोपाचलपुर (वर्तमान में गुलेर) तीर्थ में पहुंचा । यहाँ पर सं० धिरिराज के बनाये हुए विशाल और उच्च मन्दिर में विराजमान श्री शांतिनाथ भगवान के दर्शन किये। संघ पांच दिन यहाँ ठहरा। यहां से चलकर व्यास नदी के तट पर बसे हुए नन्दनवनपुर में संघ पहुंचा। (७) नन्दनवनपुर (वर्तमान में नन्दपुर) में संघ ने श्री महावीर भगवान के सुन्दर मन्दिर के दर्शन किये । यहाँ से चलकर संघ कोटिलग्राम में पहुंचा। (८) कोटिलग्राम में संघ ने श्री पार्श्वनाथ भगवान की यात्रा की। वहाँ से संघ कोठीपुर पहुंचा। (९) कोठीपुर (पहाड़ों से घिरा स्थान) में संघ ने श्री महावीरदेव के दर्शन किये। यहां के संघ के अाग्रह से यात्रीसंघ १० दिन ठहरा। यहां पर श्रावकों के परिवारों की बहुत संख्या थी। यहाँ पर साधर्मीवात्सल्य भी हुए । यहाँ के महावीर के मन्दिर की विक्रम की आठवीं शताब्दी में उपकेशगच्छीय प्राचार्य कक्क सूरि ६ वें ने प्रतिष्ठा कराई थी। पश्चात् संघ ने यहाँ से प्रयाण किया। कुछ दिनों बाद संघ सप्तरुद्र जो भारी प्रवाहवाला जलाशय है उसके निकट पहुंचा (इस तालाब के नजदीक कालेश्वर महादेव का मन्दिर है)। वहां से संघ नावों में बैठकर ४० कोस लम्बा जलमार्ग पार करके सुखपूर्वक प्रागे बढ़ता हुआ। (१०) देपालपुर पत्तन' में पहुंचा। यहाँ के जैनसमुदाय ने भारी समारोह के साथ संघ का नगरप्रवेश कराया। यहां पर भी कोठीपुर की तरह साधर्मी-वात्सल्य, संघसत्कार आदि प्रेम ना। 1. इस यात्रासंघ को यहाँ के बड़े-बूढ़े पुरुषों ने तीर्थ के चमत्कारों तथा महिमा का इस प्रकार वर्णन किया "यह महातीर्थ श्री नेमिनाथ के समय में सुशर्मनामक राजा ने अंबिकादेवी की सहायता से निर्माण कराया था । इस मन्दिर में विराजमान जो मादिनाथ भगवान की मूर्ति है वह किसी की घड़ी (बनाई) हुई नहीं है । स्वयंभू अर्थात् अनादि है । इसका बड़ा भारी अतिशय (चमत्कार) है जो आज भी प्रत्यक्ष है। भगवान के चरणों की सेवाकरने वाली जो अंबिकादेवी है, उसके प्रक्षाल का पानी और भगवान के प्रक्षाल का पानी दोनों निकट में रहने पर भी आपस में कभी नहीं मिलते। मंदिर के मुलगंभारे में चाहे कितना स्नान-जल क्यों न हो, वह क्षणभर में सूख जाता है । यद्यपि इसको निकलने का मार्ग नहीं है । 2. वर्तमान में कोटला। 3. वर्तमान में देवालपुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy