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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म वहाँ पर विशाल जनमन्दिर का निर्माण करवा कर श्री युगादिदेव ऋषभदेव को इस प्रतिमा को मूलगंभारे में विराजमान करके स्थिर प्रतिष्ठा कराई। इस मंदिर की बांई ओर एक मंदिर में अंबिकादेवी की प्रतिमा भी विराजमान की। यह भी जनश्र ति है कि यह मंदिर अंबिकादेवी ने अपनी शक्ति से स्वयं निर्माण किया था। इसलिए यह तीर्थ शत्रुजय के समान ही माना जाता था । इस तीर्थ की यात्रा करने से शत्रुजय की यात्रा के समान ही लाभ होता है। ऐसी मान्यता थी।" "वारह नेमीसर तणए. थापिय राय सुसरंमि।। आदिनाह अंबिका सहिय कंगड़कोट सिहरं मि" ॥३।। (नगरकोट विनति वि० सं० १४८८) अर्थात-श्री नेमिनाथ प्रभु के समय में राजा सुशर्मचन्द्र ने कांगड़ा कोट के शिखर पर श्री आदिनाथ प्रभु को अंबिकादेवी के साथ प्रतिष्ठित किया। ___ कांगड़ा की पर्वत क्षेणियों का नाम प्राचीन काल में सपादलक्ष, सवालक्ष और शिवालक था। अब इस पर्वत क्षेणियों को भी कांगड़ा पहाड़ के नाम से पुकारा जाता है। विक्रम की १५ वीं शताब्दी में इस मंदिर के विषय में यह जनश्रुति थी कि राजा रूपचन्द्र को गुरु ने शत्रु जय तीर्थ की यात्रा का माहात्म्य सुनाया तब उस राजा की भावना शत्रु जय तीर्थ की यात्रा करने की हुई । इसने शत्रुजय तीर्थ की वन्दना करके ही अन्न-जल करने का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) किया। जिनशासनोन्नति के लाभ और भावोल्लास के कारण गुरु ने अंबिकादेवी का ध्यान करके उसे अपने समीप बुलाया । अंबिकादेवी ने गुरु से बुलाने का कारण पूछा । सारी बात को गुरु के मुख से सुनकर देवी ने धवलगिरि से श्री आदिनाथ की प्रतिमा लाकर रातोरात जिन मंदिर का निर्माण करके इस प्रतिमा की स्थिर स्थापना की। स्वप्न में अंबिकादेवी ने राजा रूपचन्द्र को दर्शन दिए और कहा- "उठो ! आदीश्वर दादा प्रसन्न हुए हैं, पूजा वन्दना करके पारणा करो। राजा रूपचन्द्र ने प्रातःकाल उठकर आदीश्वर प्रभु की पूजा कर अपना अभिग्रह पूरा किया और पारणा किया । सर्वत्र जय-जयकार हुआ। (कनकसोम रचित नगरकोट आदीश्वर स्तोत्र वि० सं० १६३४) लगता है कि सुशर्मचन्द्र के समय का मंदिर ध्वंस कर दिया हो अथवा जीर्णशीर्ण हो गया हो और उसका जीर्णोद्धार राजा रूपचन्द्र ने करवाया हो तथा आगे चलकर अंबिकादेवी द्वारा तीर्थ की स्थापना की जनश्र ति रूपचन्द्र के नाम के साथ जोड़ दी गई हो। इस किले के विषय में सर ए० कनिंघम अपनी आकि पालोजिकल रिपोर्ट में लिखता है कि From the suburb of Bhawan. The highest point is occupied by the palace below which is a courtyard containing the small stone temple of Lakshmi Narain, Ambika Devi and a Jain temple with a large figure of Adinath. The courtyard of the temples is closed by a gate called the Darshni Darwaza or “Gate of worshipping” and the gate leading from it to the palace is called the Mahlon Ka-Darwaza or "Palace Gate." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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