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________________ कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म १६१ अर्थात् (अंबिकादेवी के) भवन के बाहरी भाग में किले की सबसे ऊंची चोटी पर राजमहल है और नीचे के प्रांगन में एक छोटा-सा पत्थर का मंदिर लक्ष्मीनारायण का, एक अंबिकादेवी का और एक जैन मंदिर जिसमें एक आदिनाथ की बड़ी प्रतिमा विराजमान है । मंदिरों वाला प्रांगन दर्शनी दरवाजे अथवा पूजा के दरवाजे से बन्द होता है और जो दरवाजा राजमहल का नेतृत्व (सुरक्षा) करता है उसे महलों का दरवाजा अथवा राजमहल दरवाज़ा कहते हैं। __कहने का प्राशय यह है कि ई० स० १८७२-७३ में किले के अन्दर श्री आदिनाथ का मंदिर तथा अंबिकादेवीं के ये दो जैन मंदिर मौजूद थे। किले के आदिनाथ के मंदिर की अधिष्ठात्री अंबिकादेवी के प्रभाव से यह तीर्थ बहुत चमत्कारी हुआ तथा प्राचीनकाल से ही श्री आदिनाथ प्रभु इष्ट देव के रूप में और अंबिकादेवी की कुलदेवी के रूप में कचौट राजवंश में मानता चली आ रही थी। कहा जाता है कि बाद में अंबिकादेवी की मूर्ति को किसी ने यहाँ से गायब कर दिया। आज भी श्री आदिनाथ की प्रतिमा जहाँ विराजमान है । उसकी बगल की दिवार के पीछे श्री नेमिनाथ भगवान के शासनदेव तीन मुखवाले गोमेध नामक यक्ष की मूर्ति तथा क्षेत्रपाल मणिभद्र आदि की मूर्तियां लगी हुई विद्यमान हैं। श्री नेमिनाथ के समय से लेकर कांगड़ा में तथा सारे जालंधर-त्रिगर्त जनपद में अर्थात् सारे कांगड़ा-कुलु और जालंधर क्षेत्र के अनेक नगरों और ग्रामों में समय-समय पर जैनमंदिरों का निर्माण होता रहा। बीच-बीच में अनेक अाक्रमणों से इनका ध्वंस भी होता रहा । अनेक जैन मंदिरों को जैनेतरों ने अपने मंदिरों के रूप में परिवर्तित भी कर लिया और मसजिदों में भी बदल लिया। विक्रम की १७ वीं शताब्दी तक इन जैनमंदिरों और जैनतीर्थों की यात्रा करने के लिए जैनसंघ आदि समय-समय पर प्राते रहे । परन्तु खेद का विषय है कि इसके बाद का इतिहास जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं और न ही जैनों का इस तरफ लक्ष्य ही रहा है । विक्रम की १४ वीं शताब्दी से लेकर १७ वीं शताब्दी तक लगभग चार सौ वर्षों में जो अनेक जैन यात्री और यात्रीसंघ इन तीर्थों की यात्राएं करने आते रहे हैं उनके द्वारा लिखित कतिपय उपलब्ध विज्ञप्तियों, चैत्यपरिपाटियों, स्तवनों, स्तुतियों, विनतियों के प्राधार से जो कुछ प्रकाश पड़ता है, उसका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाता है। "उत्तरदिशा में त्रिगर्त नाम का देश है। जिसमें अनेक अच्छे-अच्छे तीर्थ स्थान हैं। उनमें सुशर्मपुर नाम के नगर में श्री आदिनाथ भगवान का जो तीर्थ है वह सबसे अधिक पवित्र, महान और चमत्कारी है । वह धाम अनादि है। इस वर्तमान काल में जबकि सब देशों में म्लेच्छोंमुसलमानों के अत्याचारों से मंदिर और तीर्थ नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं तब यह तीर्थ आज भी अपने गौरव को कायम रखे हुए है। जिसने इस तीर्थ के दर्शन कर लिए फिर उसे औरों के दर्शन करने की ज़रूरत नहीं है । ऐसा यात्री के मुख से सुनकर"-- विक्रम संवत् १४८४ (ईस्वी सन् १४२७) को सिंधदेश के फरीदपुर (पाकपटन) नामक नगर (वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रदेश में) से श्वेताम्बर जैन खरतरगच्छीय मुनि जय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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