SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधर्म १५९ विजेतानों ने इसके धन-माल और मंदिरों को खब लूटा और जो कुछ हाथ लगा अपने साथ ले गये । हम लिख आये हैं कि काबुल के हिन्दू राजाओं ने तो कई पीढ़ियों तक इस पर अपनी सत्ता जमाये रखी। आगे चलकर त्रिगर्तल का नाम अपभ्रष्ट होकर त्रिगर्त हो गया । कांगड़ा भारत के प्राचीन जैनतीर्थों में पंजाब (वर्तमान में हिमाचल प्रदेश) में कांगड़ा एक अत्यन्त प्राचीन और महत्वपूर्ण तीर्थ है। जिसकी यात्रा करने के लिए अनेक स्थानों से जनसंघ पाते रहे हैं तथा अनेक जैनसाधु, जैनाचार्य, जैनगृहस्थ तथा जैनपरिवार भी सदा यहाँ यात्रा के लिए आते रहे हैं । इनके द्वारा की गई यात्राओं के लिखित विवरणों में से तथा उनके द्वारा रचित इस क्षेत्र के तीर्थों के स्तवनों, विनतियों, चैत्यपरिपाटियों, स्तुतियों आदि से इस तीर्थ के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश की पर्वतीय श्रेणियों में कांगड़ा अपने जिले का विशेष रमणीय क्षेत्र है जिसमें नगरकोट-कांगड़ा नामक एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर है। नगर के दक्षिण की ओर पर्वत की रमणीय चोटी पर एक प्राचीन विशाल किला है । इसके दोनों ओर बाणगंगा और मांझी नाम की दो नदियां बहती हैं । यह नगर किला (गढ़) और इसके समीप या सुदूरवर्ती अनेक ग्रामनगरों वाला प्रदेश प्राचीन समय में जैनधर्म का केन्द्र था। यहां के राजाओं का मुख्य धर्म जैनधर्म होने के कारण उस समय यहां का राजधर्म तथा राष्ट्रधर्म, जैनधर्म था। यह बात जन और जैन अनुश्रुतियों से स्पष्ट है कि जैन तीर्थंकर भगवान श्री नेमिनाथ (२२ वें तीर्थकर) के समय में कृष्ण के समकालीन महाभारत युग में चंद्रवंशी (सोमवंशी) कटौचकुल के राजा सुशर्मचन्द्र के करकमलों से इस नगर तथा कोट का निर्माण हुआ और उसी समय यहां के किले में सुशर्मचन्द्र राजा द्वारा ही अंबिकादेवी की सहायता से श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) जी के मंदिर का निर्माण होकर इस महातीर्थ की स्थापना हुई (अंबिकादेवी जैनों के बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ की शासनदेवी है)। इससे यह भी सिद्ध होता है कि कटौचवंशी राजाओं का श्री नेमिनाथ के साथ सीधा संबंध है। जिन्होंने इस महातीर्थ की स्थापना की थी। यहां एक प्रश्न अवश्य होता है कि यदि अंबिकादेवी और नेमिनाथ के साथ सुशर्मचन्द्र का निकट सम्बन्ध था और वह नेमिनाथ का समकालीन भी था तो उसने नेमिनाथ का मंदिर स्थापित न करके श्री प्रादिनाथ का मंदिर स्थापित क्यों किया? इसका समाधान विज्ञप्ति त्रिवेणी के समकालीन श्रावकों तथा जनश्रुति से हो जाता है, जो इस प्रकार है ___"राजा सुशर्मचन्द्र के मन में शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने का विचार हुआ। उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक तीर्थ की यात्रा न कर पाऊंगा तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा। पर यहाँ से शत्रुजय तीर्थ बहुत दूर होने से उसकी भावना थोड़े दिनों में पूरी होना संभव नहीं थी। राजा को कई उपवास हो गये। तब अंबिकादेवी ने उसे स्वप्न में दर्शन दिये और कहा कि प्रातः होते ही तुमको युगादिदेव श्री ऋषभदेव के यहीं दर्शन हो जावेंगे, कोई चिन्ता मत करो। तब अंबिकादेवी हिमगिरि से श्री आदिनाथ की कान्तिमय मूर्ति रातोरात कांगड़ा किला में ले पाई सुशर्मचन्द्र राजा ने प्रभु श्री युगादिदेव ऋषभदेव का दर्शन करके अपनी कामना को प्राप्त किया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy