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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
धनाढ्य समृद्धिशाली श्रेष्ठियों का यह निवास स्थान था। जैन साधु-साध्वियों का यह विस्तृत विहार क्षेत्र था। दूर-दूर का जनसमाज इन तीर्थों की यात्रा करने के लिये यहां आया करता था। कांगड़ा संकड़ों जैन परिवारों का निवास स्थान था। कांगड़ा रूपचन्द्र जैसे राजा के पूर्वजों के बनाये हुए जिनभवनों से अलंकृत था और नरेन्द्रचन्द्र जैसा राजा विक्रम की १५वीं शताब्दी में जैनधर्म के प्रति निष्ठावान-श्रद्धावान था, तथा उन जैनमंदिरों में जिनप्रतिमानों का भावपूर्वक दर्शन और पूजन किया करता था। न जाने हमारे ऐसे कितने कीतिचिन्हों पर अंधकार और विस्मरण के थर पर थर जमे हुए हैं । पट पर पट चढ़े हुए हैं।
इस त्रिवेणी से तथा अन्य चैत्यपरिपाटियों, स्तवनों, स्तुतियों से ज्ञात होता है कि विक्रम की १७वीं शताब्दी के अन्त तक यहाँ कांगड़ा में श्वेतांबर जैनधर्म के अनुयायियों के कई बड़े-बड़े विशाल मंदिर विद्यमान थे। संभव है कि यहां बादशाही जमाने में कोई दिगंबर जैनमंदिर भी बना हो। क्योंकि जनरल ए० कनिंघम के कथनानुसार जाना जाता है कि बादशाही जमाने में यहां का दीवान दिगम्बर जैन धर्मानुयायी था।
तथा उपर्युक्त त्रिवेणी, स्तवन, स्तुतियों आदि से यह भी ज्ञात होता है कि कांगड़ा और कुलु प्रदेश में बहुत संख्या में श्वेतांबर जैनमंदिर थे और श्वेतांबर जैनों की आबादी भी हजारों परिवारों की थी। परन्तु खेद का विषय है कि उनमें से मात्र काँगड़ा किले में विराजमान श्री पादिनाथ (ऋषभदेव) की एक प्रतिमा के सिवाय न तो कोई जैनमंदिर सही हालत में है, न ही जिनप्रतिमा और जैनधर्मानुयायी विद्यमान रहा है। कुछ प्राचीन खंडित-अखंडित जन मूर्तियां आज भी इस पूर्वकालीन वृतांत की सत्यता को प्रमाणित कर रही हैं। सरकारी पुरातत्त्व विभाग की कृपा से हमें हमारे इन अवशिष्ट कीतिचिन्हों का थोड़ा बहुत पता लगता है। आज भी इस क्षेत्र में कहीं कहीं पर जैनमूर्तियाँ हिन्दू देवी-देवताओं के रूप में पूजी जाती है।
अब इस विषय में जनरल ए. कनिंघम क्या कहता है इसे भी देख लिया जावे ।
"ईस्वी सन् २००६ में महमद गजनवी के कांगड़ा पर आक्रमण से पहले इतिहास में कांगड़ा का नाम देखने को नहीं मिलता और न ही कोई प्रामाणिक इतिहास मिलता है । इससे पहले इसका नाम त्रिगर्त का उल्लेख मिलता है। सबसे पहले काश्मीर के इतिहास से ज्ञात होता है कि ई० सन् ४७० में द्रवरसेन (शिव) ने त्रिगर्तल नाम का पत्थर रखा और त्रिगतल भूमि को सुरक्षित किया। दूसरा प्रमाण यह मिलता है कि ईस्वी सन् ५२० में द्रवरसेन प्रथम के पौत्र द्रवरसेन द्वितीय ने त्रिगर्तल देश को विजय किया । अंतिम तीसरा प्रमाण यह मिलता है कि ई० सन् ६०० में त्रिगर्तल के राजा पृथ्वीचन्द्र ने शंकरवर्मा के सामने हथियार डाले। इससे यह ज्ञात होता है कि महमूद ग़ज़नवी से पहले छह शताब्दियों तक त्रिगर्तल पर कई अलग-अलग जातियों के राजाओं ने राज्य किया तथा इसके पश्चात् भी कई बार इस पर आक्रमण होते रहे । त्रिगर्तल कभी मुसलमान बादशाहों के हाथ में गया और पुनः-पुन: कटोचवंशी राजाओं के हाथ में आता रहा । इसकी कई बार तोड़-फोड़ हुई और कई बार मुरम्मत तथा निर्माण होते रहे । अत्याचारी
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