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________________ १५२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म में कहा है कि जिस के बाजारों में विविध प्रकार की सामग्री विक्री के लिए आवे और उसकी गांठे खुलें उसे पुटभेदन कहते हैं। स्यालकोट में पर्वत की चाटियों की तरह सैंकड़ों और हजारों ऊँचे भवन थे। हाथी घोड़े रथ और पैदल चलने वाले लोगों से वहाँ चहल-पहल रहती थी। झुण्ड के झुण्ड स्त्री-पुरुष घूमते फिरते थे । यह नगर सभी प्रकार के मनुष्यों से गुलज़ार था। क्षत्रीय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र, गणाचार्य (जैनाचार्य), श्रमण (जैनसाधु), ब्राह्मण (धर्मोपदेशक ब्राह्मण) सभी प्रकार के लोग रहते थे। यहां बड़े-बड़े विद्वानों के केन्द्र थे। काशी कोटूम्बर आदि स्थानों के बने कपड़ों की बड़ी-बड़ी दुकानें थीं। अभिलषित रत्न भरे पड़े थे। सभी प्रकार के फलों और सुगंधित द्रव्यों की दुकानें थीं । कार्षापन, चांदी, कांसा आदि की वस्तुएँ और कीमती पत्थरों तथा रत्नों, जवाहरातों से परिपूर्ण नगर मानों बहुमूल्य रत्नों का एक चमकता खजाना था। सभी प्रकार के धन-धान्यों और उपकरणों के भंडार एवं कोष भरपूर थे। वहाँ अनेक प्रकार के खाद्य, भोज्य और पेय थे। उत्तरकुरु की नाईं उपजाऊ और अलकानन्द देवकुरु की नाई शोभायमान वह नगर था। प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस नगरी का वर्णन किया है । कुमारभृत्य की तक्षशिला से मथुरा तक की यात्रा के वर्णन में कहा गया है कि वह तक्षशिला से भद्रंकर, उदुम्बर, रोहितक होता हुआ मथुरा पहुंचा। श्री प्रिजुलम्की ने भद्रंकर की पहचान साकल से की है । साकल नगर जम्मू की पहाड़ियों का उतार समाप्त होते ही सपाट मैदान पर ऐक नामक एक छोटे से नाले के किनारे पर आबाद है। यह नाला रावी नदी में जाकर मिल जाता है । इस नगर का आधुनिक नाम स्यालकोट है। इसका किला सामान्य ऊँची टेकरी पर बना हुआ है। प्राचीन काल में इस नगर में अनेक जैनमंदिर थे। उत्तरार्ध लौकागच्छीय यति श्री हंसराज ने विक्रम संवत १७०६ में यहां के एक जैनमंदिर के मूलनायक के स्तवन की रचना की थी। पाकिस्तान बनने से पहले यहाँ प्रोसवाल भावड़ों के ५०० घर थे। तपागच्छीय प्राचार्य श्री मद्विविजय वल्लभ सूरि ने यहां पर विक्रम संवत् २००३ में एक विशाल जैनमंदिर का श्रावकों को उपदेश देकर निर्माण करवाया था और उसमें चार शाश्वत तीर्थकरों की प्रतिमानों की प्रतिष्ठा भी की थी। शुगराज पुष्यमित्र को पाटलीपुत्र (पटना) से चक्रवर्ती खारवेल ने मार भगाया था। वह वहां से स्यालकोट में चला आया था। उस समय भी यहाँ अनेक जैन मंदिर थे । प्राचीन साहित्य में इस नगर का नाम साकला, सागला भी था। जम्मू जम्मू की पहाड़ियों का वर्णन सबसे पहले युनानी लेखकों ने किया है। उन्होंने दो प्रदेशों का उल्लेख किया है । १--अभिसार (Abhisar) और २–कथिनोई (Kathaui) अभिसार को आज पुछ कहते हैं । कथिनोई को आज कठुआ कहते हैं यह रावी नदी के किनारे पर पाबाद था। कठ्या अाजकल जम्मू जिले में है इस की राजधानी भी साकल (स्यालकोट) थी। स्टरहो ने इसे एक बड़ा गणतंत्र राज्य कहा है। जो दामने कोह (पर्वत की तलहटी) में दूर-दूर तक रावी नदी के किनारेकिनारे फैला हुअा था । चिनाब और जेहलम नदियों के मध्य वर्तमान जम्मू और काश्मीर का भाग भी था । अभिसार, तक्षशिला और पोरस की सेनाएं भी युनानी सिकन्दर महान के कमान में थीं। त्रिगर्त-शष्टा (Trigartta) यह जम्मू और कांगड़ा के साथ-साथ फैला हुआ था । जम्मू में वर्तमान काल में ओसवाल श्वेतांबर जैनों के लगभग एक सौ परिवार आबाद हैं। यहाँ पर एक महावीर स्वामी का श्वेताबर जैनमंदिर है तथा अनेक जैन संस्थाएं भी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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