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________________ भद्र जनपद में जनधर्म १५१ (जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी सन् १९०७ पृष्ठ ६५०),। चाहे जो हो पर कुवलयमाला के उल्लेख से हम इतना तो जान पाये हैं कि तोरमाण की राजधानी पव्वइया नाम की नगरी थी और वह पंजाब की चन्द्रभागा (चिनाब) नदी के किनारे बसी हुई थी। प्राकृत भाषा का पव्वइया का संस्कृत रूप पार्वतिका होता है । जिससे यह स्पष्ट है कि यह नगर पर्वत पर चिनाब नदी के किनारे पर अवस्थित था। अतः झंग, शोरकोट, हड़प्पा, मौंटगुमरी आदि नगर मैदानी प्रदेश में हैं, पर्वत पर नहीं हैं । कई विद्वानों ने स्यालकोट को. पव्वइया कहा है । परन्तु स्यालकोट न तो चिनाब के किनारे पर है और न ही पर्वत पर अवस्थित है । यह नगरी जम्मू के पश्चिम की ओर हिमालय की तलहटी से लगभग २० मील की दूरी पर मैदानी इलाके में ऐक नाले के किनारे पर अवस्थित है। दूसरी बात यह है कि कुवलयमालाकार ने लिखा है कि तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल की राजधानी सालपुर (स्यालकोट) थी और यह भी लिखा है कि मिहिरकुल ने अपनी राजधानी सालपुर में बनाई। इससे भी यह स्पष्ट है कि पव्वइया और सालपुर अलग-अलग हैं, एक नहीं। अर्थात् तोरमाण की राजधानी पव्वइया थी और उसकी मृत्यु के बाद इसके पुत्र मिहिरकल ने अपनी राजधानी पव्वइया से सालपुर में स्थानान्तर की। जम्मू नगर है तो पर्वत पर किन्तु चिनाब नदी के किनारे पर नहीं है। यह तो रावी नदी के किनारे पर आबाद है । हम लिख आये हैं कि भद्र जनपद का विस्तार जम्मू, पुंछ, स्यालकोट तथा हिमालय की तलहटी तक के दूर नगरों तक था। जम्मू और पुंछ भी क्रमशः इस जनपद की राजधानियां रही हैं । अतः इसी क्षेत्र में चिनाव नदी के किनारे पर पब्वइया नगरी अवस्थित थी। यानी तोरमाण की राजधानी पम्वइया नगरी, जम्मू के निकटवर्ती और चिनाब नदी के तट पर अवस्थित होनी चाहिए। अहिछत्रा नगर के राजा हरिगुप्त ने जैनसाधु की दीक्षा लेकर पार्वतिपुर और स्यालकोट राजधानियों के आधीन इसी क्षेत्र में अखण्ड ज्ञान ज्योति जलाई थी और घोर तप की साधना भी की थी। सागल (स्यालकोट) का युनानी राजा मिनेडा भी जैन धर्मानुयायी था। पार्वतिका के लिये हमारे इस मत की पुष्टि पाणिनी के मत से भी होती है वह लिखता है कि–पर्वत का प्रदेश पंजाब देश में तक्षशिला आदि समूह का एक भाग है । (IV २, १४३)। जैनाचार्य आर्य हरिगुप्त सूरि ने हूण सम्राट तोरमाण को पव्वइयापुरी राजधानी में धर्मोपदेश दे कर जैनधर्मी बनाया था। इस सम्राट की प्रार्थना पर कई वर्षों तक आचार्य श्री अपने शिष्यों प्रशिष्यों सहित यहाँ रहे भी थे। इस नगर में तोरमाण ने श्री ऋषभदेव का जैनमंदिर भी बनवाया था। तथा तोरमाण के आधीन इस सारे जनपद में जैनधर्म का खूब विस्तार भी किया था। ये सब विक्रम की पांचवीं-छटी शताब्दी में हुए हैं। पश्चात् तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने राजगद्दी पर बैठते ही स्यालकोट को अपनी राजधानी बनायो । इस ने राजगद्दी पर बैठते ही जैनों पर अत्याचार करने शुरू कर दिये । इसलिये जैनों को विवश होकर पवइया और भद्र जनपद छोड़ने पड़े । जान-परिवार, माल और धर्म की रक्षा के लिये जैन लोग अपनी मातृभूमि को छोड़कर जैनाचार्य आर्य देवगुप्त के शिष्य प्राचार्य शिवचन्द्र के साथ लाट (गुजरात) देश की तरफ़ जाने को विवश हो गये और भिन्नमाल में जाकर बस गये । साकलपुर के लिए महाभारत में (सभापर्व अ० ३२, श्लो० १४) 'पुटभेदन' शब्द का प्रयोग हुअा है । पुटभेदन शब्द की व्याख्या करते हुए वृहत्कल्पसूत्र भाष्य स्टीक (खंड २ गाथा १०९३) 1. इ. एंटी. वा. १ पृष्ठ २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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