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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म पर्वत में जम्मू नगर के निकटवर्ती थी। इसके पुत्र मिहिरकुल ने वि० सं०५६६ में अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी राजधानी साकल (स्यालकोट-पंजाब) नगर को बनाया था।
कुवलयमाला में उद्योतन सूरि को प्रशस्ति जैनाचार्य हरिगुप्त सूरि गुप्तवंश के थे। वह गुप्त सम्राट को पदच्युत करनेवाले हूण सम्राट तोरमाण के धर्मगुरु थे। तोरमाण विक्रम की छठी शताब्दी में हुआ । कुवलयमाला के कर्ता जैन श्वेतांबर आचार्य चन्द्रकुल के उद्योतनसूरि ने अपने इस ग्रंथ में लिखा है कि एक देवगप्त नाम के प्राचार्य
कार्य भी हए हैं। कवलयमाला के कर्ता ने बतलाया है कि गप्तवंशीय राजर्षि देवगप्त त्रिपुरुष चारित्र के कर्ता हैं। यह संभवतः उपर्युक्त हरिगुप्त के शिष्य महाकवि देवगुप्त होंगे। प्राचार्य श्री हरिगुप्त के शिष्य देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्र गणि पंजाब से गुजरात गये थे।
पुरातत्त्वज्ञों का मत है कि हण सम्राट तोरमाण ने कन्धार, सौराष्ट्र या आनर्त, मत्स्य, मध्यदेश को जीतकर ईस्वी सन् ४८४ (वि० सं० ५४१) में एरण जीता। फिर बुंदेलखण्ड और मालवा को भी जीता। यह हूण लगभग ई० स० ५०० में समस्तं उत्तर भारत का सम्राट बन गया था। भारत की सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर सीमा, पंजाब से मथुरा पर्यन्त उत्तरप्रदेश और मध्यभारत में ग्वालियर एरण आदि प्रदेशों पर इसका अधिकार था। इसके सिंहासन पर इसका पुत्र मिहिरकुल बैठा । वह बहुत बहादुर था । इसने काश्मीर जीता । ई० स० ५१७ में सिन्ध तथा उसके पास-पास का प्रदेश भी जीत लिया। ई. स. ५४० में इसकी मत्यू हई। इसके बाद हण सत्ता का अन्त हया। वीर संवत् ६५० (ई. स. ४२३) के बाद तुरमणी नगरी तोरमाण के हाथ आई थी । तुरमणी का असली नाम पब्वइया नगरी है । तोरमाण ने यहां अपनी राजधानी स्थापित की थी इसलिए पव्वइया नगरी का नाम तुरमणी नगरी पड़ गया होगा। तोरमाण ने यहां प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का जैनमंदिर बनवाकर अपनी जिन भक्ति और जैनधर्मी होने का परिचय दिया था। उद्योतन सूरि ने पव्वइया नगरी को बहुत समृद्धिशाली लिखा है।
पव्वइया नगरी कहां पर थी और उसका वर्तमानकाल में क्या नाम है ? उसका इस समय अस्तित्व भी है या नहीं ? इसकी खोज करने के लिए विद्वानों ने प्रयास किये हैं । सर कनिंघम पव्वइया को झंग अथवा शोरकोट (पाकिस्तान के) नगरों से तुलना करता है। ये दोनों नगर पंजाब में हैं। (ए. कनिंघम लिखित एन्श्येंट ज्योग्राफ़ी माफ़ इंडिया नवी आवृत्ति पृष्ठ २३३-३४)। वीसेन्ट ए. स्मिथ काश्मीर राज्य का उपनगर जम्मू कहता है । (वार्टस 'यवनचंग भाग २ पृष्ठ ३४२), डा० फ्लीट हरप्पा (मौंटगुमरी पंजाब-पाकिस्तान के समीप वाले) खण्डहरों को पव्वइया कहता है । 1. कनिंघम साहब को सन् १८८४ ईस्वी में अहिछता से एक तांबे का सिक्का मिला था। जिसकी एक तरफ
पुष्प सहित कलश है और दूसरी तरफ श्री महाराज हरिगुप्तस्य ऐसा वाक्य लिखा हुआ है । इसका समय विक्रम की छठी शताब्दी ठहरता है । अक्षरो की आकृति पर से और नाम की तुलना से यह सिक्का किसी गुप्तवंशीय राजा का ही होना चाहिए । इस सिक्के की पिछली तरफ की आकति इस राजा के धार्मिक विश्वास पर प्रकाश डालती है।
याज्ञिक वैदिक धर्मानुयायी राजानो के सिक्को पर यज्ञयी अश्व की, विष्णुभक्त के सिक्को पर लक्ष्मी की, शिवभक्त के सिक्को पर वृषभ की, बौद्ध राजामो के सिक्को पर चैत्य की प्राकृतियां होती हैं । जैनधर्म के प्रयायियो की धर्म भावना को बतलाने वाली जो प्राकृतियां अंकित की जाती हैं उनमें से एक पुष्पसहित कलश की भी प्राकृति है। इसका कारण यह है कि पुष्पसहित कलश जैनो में सुप्रसिद्ध कुंभक लश होने की संभावना है। जनो ने कुम्भकलश को एक मांगलिक वस्तुं मानी है और प्रत्येक मंगल कार्य में शुभचिन्ह मानकर उसका मुख्य रूप से प्रालेखन करते हैं । अथवा क लश में जल अथवा अक्षत भरकर उसके मुख को नारियल पुष्पादि से ढांक और सजाकर मंगल रूप में स्थापित करते हैं । मथुरा के कंकाली टीले से कुशानकालीन जैन स्थापत्यो में से इस कुम्भकलश की प्राकृतियां भी मिली हैं। तथा पुरानी हस्तलिखित प्रतियो मे भी अनेक तरह के कुंभकलश के चित्र उपलब्ध होते हैं। (श्री जिनविजय का कुवलयमाला संबंधी लेख)
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