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________________ काश्मीर में जैनधर्म १४६ क्षेत्र की परिगणना “भद्र जनपद" में की जाती थी । अतः इसका हम पव्वइया (पार्वतिक) प्रदेश ( जिसमें स्यालकोट, जम्मु, पुंछ, भद्रवाह तथा हिमालय पर्वत की तलहटी के निकटवर्ती लम्बे प्रदेश के अनेक नगरों आदि क्षेत्रों का समावेश है) के विवरण में प्रकाश डालेंगे । भारत में अंग्रेजों के राज्यकाल में काश्मीर के राजा प्रतापसिंह के दीवान (मंत्री) श्रोसवाल कुलभूषण दूगड़ गोत्रीय जैनधर्मानुयायी लाला विशनदास जी थे। जिनके वंशज वर्त्तमान में जम्मूतवी (काश्मीर) में विद्यमान हैं । तथा इन्हीं के राज्यकाल में लाला हरभगवानदासजी जैनधर्मानुयायी श्रोसवाल कुलभूषण दूगड़ गोत्रीय गुजरांवाला - पंजाब निवासी राजा प्रतापसिंहजी के तोषाखाना के उच्चाधिकारी थे । एवं राजा प्रतापसिंह जी के उत्तराधिकारी राजा हरिसिंह के समय में सहारनपुर निवासी श्रीमालकुलभूषण श्री फूलचंदजी मोगा जम्मू-काश्मीर स्टेट में बड़े उच्च पद पर आसीन थे । आपका परिवार सहारनपुर में निवास करता है । सनखतरा (पंजाब) निवासी लाला उदयचन्दजी जैन श्वेताबर खंडेलवाल ज्ञातीय इसी समय में जम्मू में पुलिस सुपरिटेंडेंट थे । श्रापका परिवार जम्मू में निवास करता है । उपर्युक्त चारों महानुभाव श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी थे । भद्रजनपद में जैनधर्मं इस जनपद की राजधानी कभी साकल (स्यालकोट) और कभी पव्वइया (पार्वतिक – जम्मू के समीपवर्ती चिनाब नदी के तटपर अवस्थित नगर ) रहे हैं। इस क्ष ेत्र में भी प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रसार रहा है । विक्रम की छठी सातवीं शताब्दी में हो गये अपने पूर्वज प्राचार्यों सम्बन्धी विक्रम की नवीं शताब्दी की आदि में कुवलयमाला नामक ग्रंथ के कर्त्ता श्वेतांबर जैनधर्माचार्य श्री उद्योतन सूरि अपनी प्रशस्ति में लिखते हैं कि : "उत्तरापथ में चन्द्रभागा ( चिनाब ) नदी जहां बहती है, वह पव्वइया (पार्वतिका) पुरी नामक समृद्धिशाली नगरी तोरमाण नामक राजा की राजधानी थी। तोरमाण राजा के गुरु गुप्तवंशीय हरिगुप्त जैनाचार्य वहां निवास करते थे । उनके शिष्य महाकवि देवगुप्त, उनके शिष्य महत्तर पदधारक शिवचन्द्र ने जिनवन्दन ( जैन तीर्थों की यात्रा) करते हुए घूमते-फिरते भिन्नमाल ( श्रीमाल नगर, राजस्थान) में आकर स्थिरता की । उनके शिष्य यक्षदत्त गणि नामक क्षमाश्रमण महात्मा यशः शाली हुए । उनके बहुत शिष्य तप- वीर्य-वचनलब्धि सम्पन्न हुए। जिन्होंने गुर्जर (गुजरात) देश को देवगृहों (जिनमंदिरों) से रम्य बनाया। उनमें से नाग, वृन्द, मम्मट, दुर्ग, आचार्य श्रग्निशर्मा और बटेश्वर ये छह शिष्य मुख्य थे । बटेश्वर ने आकाशवप्र ( सिन्ध जनपद में अमरकोट) नामक नगर में एक भव्य जैनमंदिर बनवाया । जिस मंदिर की मुख्य प्रतिमा के दर्शन से क्रोधातुर व्यक्ति भी शांत हो जाता था। उनके अन्तिम शिष्य तत्त्वाचार्य तपशील आदि की शुद्ध आचरणा के कारण यथार्थ गुण वाले थे और उनके शिष्य दाक्षिण्यचिह्न [ उपनामवाले ] उद्योतन सूरि ने ही देवी के दिये हुए दर्शन के प्रभाव से विलसित भाव होकर कुवलयमाला कथा की रचना की । प्राचार्य वीरभद्र और हरिभद्र इन विद्यागुरु थे । तोरमाण - तोरराय हूणों का प्रबल नेता था जिसने गुप्त साम्राज्य को तोड़ा और मालवा भूमि को भी जीता । तोरमाण की राजधानी पव्वइया (संस्कृत में पार्वतिका अथवा पार्वती ) हिमालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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