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प्रस्तावना
जैनधर्म वैदिक स्रोत से पृथक एवं वेद काल से भी प्राचीन है, ऐसा मन्तव्य भारत में विशेष रूप से जैन विद्वानों द्वारा प्रस्तुत और विस्तृत किया जाता रहा है । इस मन्तव्य को जैन संघ ने भी सादर स्वीकार किया है । इस दिशा में भारतीय जैन विद्वानों की विशेष रूप से चली पा रही जो प्रवृत्ति देखी जाती है, उस में वे लोग यदि अपनी मेधाविता को भी अवकाश दें तो अवश्य कुछ विशेष परिणाम पाये जा सकते हैं । मेधाविता के लिए नितांत आवश्यक है कि जिन जिन जैन ग्रंथों में जो जो इस विषय के प्रमाण पाये जाते हैं, उन उन ग्रंथों के कलेवर में से उपलब्ध विधानों तथा उनके अंशों का तलस्पर्शी अंतरंग परीक्षण करने की प्राथमिक प्रक्रिया अपनायी जाए । जिससे कि सारे ग्रंथों से विभिन्न समय समय एवं विभिन्न कर्ताओं के विभिन्न स्तरों के दर्शन हो जायें तभी हम उन ग्रंथों के स्तरों के नीचे प्रच्छन्न (दबा हुआ) उसका मूल प्राण पा सकते हैं। तथा उन ग्रंथों में से लिये हुए प्रमाण मौलिक हैं अथवा अन्य स्तर के हैं इसका भी हम निर्णय पा सकते हैं। प्राचीन समय की किसी भी कृति में समय समय पर परंपरा के विद्वानों द्वारा कुछ न कुछ परिवर्तन तो होता ही रहता है, जिससे कृति का मौलिक स्वरूप बदलता जाता है । परिवर्तन होना यह दोष नहीं है किन्तु विचारों के जीवंत प्रवाह का यह द्योतक है । इन सब बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये ।
जैनधर्म की प्राचीनता सम्बन्धी मान्यताओं को पुष्ट करने के लिए जैनेतर (धर्म) साहित्य का भी अंतरंग परीक्षण करना उतना ही प्रावश्यक है, जितना जैन धर्म के साहित्य का। उसके साथ साथ पाश्चात्य, पौर्वात्य तथा प्रणालीगत विद्वद परम्पराओं से प्राप्त सभी प्रकार की विचार प्रक्रियानों का विमर्श करना भी जरूरी है। ऋग्वेद की बात प्राती हो तो "इण्डो-यूरोपीयन" भाषामों का तलस्पर्शी अभ्यास भी जरूरी है । जिसका अभ्यास हमारे भारत में विकसित नहीं हा है। इस लिये ऋग्वेद प्रादि के अाधार पर प्रवलंबित हमारी प्रायः सभी मान्यताएं प्रमाणभत नहीं ठहर सकतीं । 'ऋषभ', 'वातरशना', 'मुनि' इत्यादि जैसे वैदिक साहित्य के शब्दों के साथ उपयुक्त अन्य शब्दों एवं अर्थों की विचारणा भी जो "इण्डो यूरोपियन" भाषाविदों ने की हो उस में सबसे प्रमाणभूत विचारणा का स्वीकार करना युक्ति संगत होता है । यह भी चर्चा आवश्यक है कि भगवान पार्श्वनाथ के अलावा भगवान महावीर के पूर्व कालीन ऋषभादि तीर्थकरों का उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में क्यों नहीं मिल पाता । अहिंसा एवं श्रमण (संन्यास) मार्ग का मूल स्वरूप निर्धारण करने को गृह्यसूत्रों-धर्मसूत्रों के एवं प्रौपनिषदिक साहित्य का भी अंतरंग परीक्षण प्रत्यन्त अनिवार्य है । इन सब के साथ बौद्ध साहित्य की भी उपेक्षा करना साहस मात्र है। इस दृष्टि से भारतीय जैन विद्वान अपनी साधन सामग्री का अभ्यास करें और जैनधर्म के मल स्वरूप सम्बन्धी कुछ तथ्य निकालें।
जैनधर्म की प्राचीनता सम्बन्धी मान्यता को विकसित करने के लिये पहले सब विधान सामग्री का संकलन करना परमावश्यक है जो अति दुष्कर कार्य भी है। हमें प्रतीत होता है कि
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