SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 14 ) डा० महोदय के विचार से "अध्याय ५ में पंजाब के यति, श्रीपूज्य, भट्टारक, जैन बस्तियां जैन जातियां और गोत्र, पुरातत्त्व, मंदिर और संस्थाएं, साहित्यकार प्रादि का उपयोगी परिचय है। ग्रंथ का यह अध्याय तो पर्याप्त महत्वपूर्ण है और बहुत सी नवीन सामग्री का उद्घाटन करता है। जिन पूजा में हिंसा का प्रभाव, जैनों की मूर्तिमान्यता की प्राचीनता और तुलनात्मक प्रध्ययन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है इत्यादि । इस प्रकार लगभग ६५० पृष्ठों में इस ग्रंथ में विद्वान लेखक ने अविभाजित भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों के जैनधर्म और जैनों से सम्बन्धित प्रभूत सामग्री एवं सूचनाएं संकलित कर दी हैं। इस प्रसंग में यह बता देना शायद अनुचित न होगा कि इस पुस्तक में यदि दिगम्बर जैनों के कार्य कलापों पर अत्यल्प प्रकाश पड़पाया है तो उसका मुख्य कारण संभवतया साधनाभाव रहा। पुनश्च इसकी पांडुलिपि को श्री वीरेन्द्र कुमार जी जैन B.A. साहित्यरत्न दिल्ली तथा श्री महेन्द्रकुमार मस्त सामाना ने प्राद्योपांत पढ़कर कुछ सुझाव दिए हैं उसके अनुसार यथा संभव उचित संशोधन से इसे प्रमाणिक बनाने में अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न किया है। अतः इस सहयोग के लिये मैं दोनों का प्राभारी हूं। प्रूफ संशोधन में मेरे सुत्र श्री अमृतकुमार ने पूर्ण सहयोग दिया है। ___ इस ग्रंथ के मुद्रक अरुण कम्पोजिंग एजेंसी के मालिक पं० कुंवरकान्त चौधरी जी ने इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिये अथक परिश्रम किया है जिससे यह ग्रंथ समय पर प्रकाशित हो पाया हैं, मैं इनका भी धन्यवाद करता हूँ। श्री गोकुलदास भाई कापड़िया बम्बई वालों ने (१) शिव और ऋषभ, (२) भगवान महावीर कमल पर विराजमान, (३) श्री ऋषभदेव का च र मुष्टि लोच तथा प्रष्ट प्रातिहार्य सहित केवल ज्ञानावस्था का चित्र (४) श्री ऋषभदेव का पंचमृष्टि लोच वाला निर्वाणसमय का नित्र (चार चित्रों) को निःशुल्क बनाकर बम्बई से भेजने की उदारतापूर्वक महत् कृपा की है । मैं उनके इस निस्वार्थ सहयोग के लिये जितना भी धन्यवाद करूं थोड़ा है। अत: उनकी उदारता और सौजन्य का भी मैं विशेष रूप से आभारी हूं। इस ग्रंथ के प्रकाशन में जिन-जिन महानुभावों ने आर्थिक सहयोग दिया हैं, यदि उनका सहयोग न मिल पाता तो यह ग्रंथ प्रकाशित ही न हो पाता । अत: उनकी यह उदारता भी प्रशंसनीय है । दाताओं की सूची पहले दी है। अन्त में पाठकों से निवेदन है कि इस ग्रंथ को पढ़कर अपनी-अपनी सम्मति भेजकर अवश्य अनुग्रहित करें तथा एतद्विषयक कोई सामग्री भी हो तो अवश्य भेजने की उदारता रखें ताकि अगले रसंस्कण में उसका उपयोग करके इस ग्रंथ को समृद्ध बनाया जा सके । हीबालाल दुग्गड़ (दिल्ली) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy