________________
( 13 ) इस इतिहास ग्रंथ में चीन, महाचीन, तिब्बत, इराक, ईराण पशिया, शकस्तान, युनान, तुर्किस्तान प्रफगानिस्तान, कम्बोज, बिलोचिस्तान, अरब, काबुल, नेपाल, भूटान, सीमाप्रांत, तक्षशिला, पंजाव, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, कुरुक्षेत्र, काश्मीर, सिंध, लंका, हंसद्वीप, क्रोंचट्ठीर इत्यादि अनेक क्षेत्रों अर्थात् चीन से लेकर दिल्ली की सीमा तक के इतिहास का समावेश है । यही कारण कि इसका नाम मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म रखा है।
इस पुस्तक में श्री ऋषभदेव, ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक के जैन इतिहास का संकलन
इस ग्रंथ में क्या-क्या विषय संकलित किये हैं उसको पाठक अनुक्रमणिका (विषय सूचि) से पढ़कर जान पायेंगे।
इस ग्रंथ में जैनधर्म के अनेक पहलूओं पर अलोचनात्मक विषद विवेचन भी किया है और लिखते हुए दृष्टि राग अथवा साम्प्रदायिक व्यामोह से पूरी तरह बचने के लिये विवेक को नजर अन्दाज (दष्टि प्रोझल) नहीं किया गया ।
धार्मिक भावना जबसाँप्रदायिक रूप धारण कर लेती है तब बहुत अटपटी बन जाती है। इससे सत्यांश और निर्भयता का अंश दब जाता है । इसमें सांप्रदायिक अथवा वास्तविक धार्मिक किसी भी मुद्दे पर चर्चा ऐतिहासिक दृष्टि से करने पर कई पाठकों के मन में सांप्रदायिक भावना की गंध आ जाना सम्भव है। यह बात मेरे ध्यान से बाहर नहीं है। आजकल ऐतिहासिक दृष्टि के नाम पर अथवा किसी की भाड़ में सांप्रदायिक भावना को पोषण करने की प्रवृत्ति अथवा विचारक माने जाने वाले व्यक्तियों में भी दिखलाई पड़ती है। ऐसी भावना से लिखे गये इतिहासिक ग्रंथों में देखा जाता है कि उसमें इतिहास से खिलवाड़ की गई है । इन सब भयस्थानों के होते हुए भी मैंने इस ग्रंथ में अनेक ऐसी चर्चाएं भी की हैं जिन्हें साम्प्रदायिक व्यामोह के पर्दे के पीछे ऐतिहासिक दष्टि से सत्य परखने की आवश्यकता रही हुई है। इस एक ही विचारणा से कि जो असांप्रदायिक अथवा सांप्रदायिक सत्य शोधक होंगे, जो सत्य और इतिहास के अभिलाषी होंगे उन्हें यह चर्चाएं कदापि सांप्रदायिक भाव से रंगी हुई भासित नहीं होगी और सत्य की प्रतीति के लिए अत्यंत उपयोगी मालूम पड़ेंगी।
इतिहास का कोई पारावार नहीं है और न ही कोई इसे पूर्ण रूप से लिखने का सामर्थ्य रखता है। जैसे-जैसे शोध खोज होती रहती है । वैसे-वैसे इतिहास के नये-नये परत खुलते रहे हैं। अतः जहाँ तक मुझ से बन पाया है मैंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार लिखने का प्रयास किया है। जैनधर्म के इतिहास को लिखने के लिए सब ऐतिहाज्ञों के सहयोग की आवश्यकता रहती है। बहुत कोशिश से छह वर्ष की अवधि में जो कुछ लिख पाया हूँ उसे संयोजकर पाठकों के सामने रख दिया है । इस कार्य में कहाँ तक सफलता मिली है इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकते हैं।
विद्वयं श्रद्धेय डा० ज्योतिप्रसाद जी जैन M.A.L.L.B. लखनऊ वालों ने महती उदारता करके इतिहास ग्रंथ की प्रेसकॉपी को अद्योपांत पढ़ने का परिश्रम उठाया है, उनका स्नेहपूर्ण सहयोग सदा चिरस्मरणीय रहेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org