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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
गये। यहां की प्रजा को तलवार की नोक से, जोर-जुलम से मुसलमान बना लिया गया। जो लोग अपने धर्म पर दृढ़ रहे उन्हें मौत की घाट उतार दिया गया और उनके बच्चों को काबुल में ले जाकर मुसलमानों के मदरसों (पाठशालाओं) में उनके धार्मिक कुरान आदि ग्रंथों का एवं भारतीय संस्कृति को काफ़िरों की संस्कृति बतलाकर उन्हें कट्टर मुसलमान बना लिया गया। आज भी काबुल के मसलमानों में एक ओसवाल-भाबड़ा-पठान नाम की जाति है। वे लोग यह तो नहीं जानते कि उनके पूर्वज कभी जैनधर्मी थे । प्रोसवाल जाति श्वेतांवर जैन धर्मानुयायी है। इस जाति को पंजाब में भाबड़ा कहते हैं इसमें एक गोत्र पठान भी है। गांधार, काश्मीर, सिंध, पंजाब आदि में जैन लोग भाबड़ा नाम से ही प्रख्याति प्राप्त थे। (प्रोसवालों में पठान गोत्र का उल्लेख खरतरगच्छीय यति श्रीपाल जी ने अपनी जैनसंप्रदाय शिक्षा नामक पुस्तक के पृष्ठ ६५९ में गोत्रों की तालिका में गोत्र नं० ३१६ संख्या में किया है।)
सुलतान सिकन्दर लोदी बुतशिकन (मूर्तिभंजक) इतिहासकार लिखते हैं कि ईस्वी सन् १३६३ से १४१६ (वि० सं० १४५० से १४७३) के समय में सुलतान सिन्दर लोदी ने जैनों, हिन्दुओं और बौद्धों के जितने भी ग्रंथ मिले सब अग्नि की भेंट कर दिये । बचे-खुचे ग्रंथों को जलसमाधि दे दी गई अथवा किसी भी प्रकार से नष्ट कर दिये
इतिहास तथा मानव के आदर्शों को चित्रित करके अक्ष ण्ण रखा है । मूर्तिपूजा में तीर्थंकर भगवन्तों के जीवन सम्बन्धि अनेक घटनाओं की भक्ति और उनके संरक्षण का समावेश है। स्नान,अष्टप्रकारी,सत्तरहभेदी,निनानवे प्रकारी, अलंकार-प्रांगी पूजाएं भी पागम विहित होने के कारण निर्दोष भक्ति का कारण हैं। इनमें प्राडम्बर, हिंसा, परिग्रह प्रादि की गंध तक नहीं है। (देखें इस ग्रंथ के लेखक द्वारा लिखी हुई—जिनप्रतिमा पूजन रहस्य तथा स्थापनाचार्य की अनिवार्यता नामक पुस्तक)। इस प्रकार मूर्ति पालम्बन रूप है, इसके द्वारा पासक एकाग्रता प्राप्तकर उपास्य को पा सकता है। यह साक्षात रूप से निमित्त मात्र है। इसे सर्वशक्तिमान ईश्वर मानकर अपने भाग्य को उसी के भरोसे छोड़कर जब मानव अकर्मन्य बनने लगा तब ऐसी अवस्था में म तिपूजा ने जहां उत्कर्ष किया उसके बदले दूसरी तरफ अफ्कर्ष भी किया है । उदाहरण रूप में-- ____ मूर्तिपूजा के कारण देश को जो बड़े-बड़े देवस्थान प्राप्त हुए उन्होंने कालान्तर में कई लोगों में कलह के बीज बोए और कलह के बड़े-बड़े साधन उपस्थित किये । कई देवमंदिरों के निमित्त हजारों लड़ाई-झगड़े हुए । इन झगड़ों में लाखों-करोड़ोंरुपये स्वाहा किये गये और लड़ाइयों में कइयों की जानें भी गई । साधर्मी संघों, भिन्न-भिन्न पंथों संप्रदायों में जन समूहों में प्राणधातक वैरभाव उत्पन्न हुआ। अज्ञानवश मूर्तिपूजा के बहाने दंभ और अनाचार को पोषण मिला। तथा मूर्तिपूजा के आचरण के पीछे स्वार्थ और अहंकार को बढ़ावा मिला । मूर्ति के काल्पनिक महात्म्य के कारण आलस्य और अकर्मण्यता को उत्तेजन मिला । विदेशियों तथा अन्य सम्प्रदायों को इन मंदिरों की प्रम ल्य निधि सोना, चांदी, जवाहरातों, मणियों, रत्नों तथा इनसे निर्मित प्रतिमानों को लूटने के लिए देश पर आक्रमणों तथा उन मन्दिरों, मतियों, स्तूपो, स्मारको को तोड़ने-फोड़ने, नष्ट-भ्रष्ट करने का भी अवसर प्राप्त हुआ।
इस प्रकार म तिपूजा के विषय में उत्कर्ष और अपकर्ष के विषय में बहुत कुछ लिखा जा सकता है।
मूर्तिपूजा के विषय में किस समय देश और जातियो पर कैसी-कैसी आपतियां आई हैं और पा सकती हैं तथा ऐसे समय में कल्पित म ति सामर्थ्य प्रजा को कैसा सामर्थ्य शून्य बना देता है। इसके उल्लेख इतिहास में बहुत उपलब्ध हैं।
सोमनाथ और महम द गजनवी के आक्रमण के विषय में ऐसे विचार इतिहासकारों को उपलब्ध हैं और ये विद्वानो के लिए चर्चा का विषय बन जाते हैं। श्री चिंतामणि वैद्य महाशय अपने मध्ययुगीन भारत' मराठी भाषा के ऐतिहासिक ग्रंथ भाग ३ में 'हिन्दुओं की मूर्तिपूजा' नामक स्वतंत्र प्रकरण रूपजो
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