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________________ काश्मीर में जैनधर्म १४५ १-“गणानां त्वा गणपति" (ऋग्वेद २:२३:१) अर्थात्-गणपति अथवा गणेश शब्द का अर्थ गणों का अध्यक्ष अथवा लोकतंत्र का राष्ट्रपति लगाया जाता है। "लाध्यः स एव गणवान-राग-द्वष वहिष्कृतः । भूतार्थ कथने यस्य स्थेपरस्येव सरस्वती ॥" अर्थात्-वही गणवान (गणपति) श्लाघनीय है जिसकी वाणी राग-द्वेष का बहिष्कार करनेवाली तथा वह एक न्यायमूर्ति के समान भूतकालीन घटनाओं को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता हो। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि काश्मीर में जैनधर्म का मात्र प्रभाव ही नहीं था किन्तु उसकी संस्कृति पर भी जैनधर्म की ही छाप थी। जिसके परिणामस्वरूप वहां पर गणपति आदि शब्दों के अर्थ वही किये जाते थे जो जैनधर्म को मान्य थे। उपर्युक्त विवरण से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ से लेकर ईसा पूर्व १५वीं शताब्दी तथा उसके बाद ईसा की १५वीं शताब्दी तक काश्मीर में जैनधर्म की प्रधानता थी। काश्मीर में जैनधर्म का ह्रासविक्रम की ११वीं शताब्दी में महमूद ग़ज़नवी से लेकर विक्रम की १५वीं शताब्दी तक मुसलमान सिकन्दर लोदी जो बुतशिकन (मूर्तिभंजक) के नाम से कुख्यात था; इन पांच शताब्दियों में अनेक मुसलमान बादशाहों ने भारत में अनेक बार आक्रमण किये एवं मुग़ल बादशाह औरंगजेब के समय तक यहां के हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों के मंदिरों-शास्त्रों को ध्वंस किया गया । नष्टभ्रष्ट करके आग लगाकर उनका नामोनिशान मिटा दिया। चाँदी, सोने, मणियों, मोतियों, जवाहरातों, रत्नों तथा सप्तधातु आदि से निर्मित मूर्तियों एवं अखूट धन-दौलत को लूटकर अपने साथ ले 1. यहां पर प्रसंगवश मूर्तिपूजा और उसके लिए ऐसे अनिष्ट प्राक्रमणों के विषय में कुछ विचारणीय बातों पर थोड़ी उहापोह करने की इच्छा होती हैं। विचारशील जैनों के लिए इन विचारों पर मनन चिंतन करके समझने की आवश्यकता है। मूर्तिपूजा की भावनाओं ने भारत में बड़े-बड़े उत्कर्ष तथा अपकर्ष दोनों ही किए हैं। मूर्तिपूजा के निमित्त देश में लाखों मंदिर बने, शिल्पकला का खूब विकास हुआ । मूर्तिपूजा ने लोगों में विस्तृत धर्म भावना उत्पन्न की और उसके निमित्त लोगों को अपनी सम्पत्ति विनिमय करने का अवसर प्राप्त हुमा। जिसके परिणाम स्वरूप त्याग और उदारता के उच्चगुणों का विकास हुआ । मूर्तिपूजा ने गांव-गांव, नगर-नगर में सार्वजनिक स्थानों की सृष्टि की और उसके योग से सब समान धर्मियों को बिना संकोच और बिना भेदभाव के प्रामवित किए बिना एक स्थान में सदा एकत्रित होने का एवं उनके द्वारा अपनी विविध जीवन प्रवृत्तियों को व्यवस्थित बनाने का उतम तथा सरल साधन मिला। मूर्तिपुजा के कारण भक्तिभाव का अभिष्ट प्रविर्भाव हुमा पोर उसके लिये साहित्य तथा संगीत का अनेक प्रशों में उच्च विकास हुमा । मूर्तिपूषा ने निराधारों को प्राधार दिलाकर, अनाथों को सनाथ बनाकर, पापियों को पुण्यात्मा बनाकर मानव जाति को बहुत शांति दी है और विशेषकर जैनों की मूर्तिपूजा से तो तीर्थंकरों के जन्म,दीक्षा, तप,विहार,केवलज्ञान, निर्वाण आदि के गस्तविक स्थानों को संरक्षण प्राप्त हुआ है। जो दूसरों को नसीब नहीं है । मूर्तिपूजा ने प्राचीन और नवीन साहित्य की श्रृंखला को जोड़कर चिरस्थाई रखने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। मूर्तिपूजा ने भारतीय संस्कृति, सभ्यता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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