________________
१४०
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
गांधार पर भी राज्य किया था। यह परम हिंसक था। पशुबलि एवं नरबलि का सख्त विरोधी था। इसने सारे भारत में तथा समुद्र पार के द्वीपों में भी राज्य स्थापित कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था । यज्ञों तथा देवी बलि के प्रतिकार के लिए इसने अनेक बार अपने शरीर तक को भी अर्पण करने की उदारता की थी। साक्षात् जिनदेव के समान इस अहिंसक राजा ने अपने राज्य में जो लोग यज्ञों में अथवा देवी के लिए बलि के लिए पशुओं को हनन करना अपना पैत्रिक धर्म छोड़ने को तैयार नहीं हुए, उनके यज्ञों में घृत पशु ( घी से बनी हुई पशुओं की आकृतियों) और पृष्ट- पशु ( दाल की पीठी से बने हुए पशुत्रों के आकारों) की बलि से काम चलाने के लिए प्रेरित किया । ।।३:७।। परन्तु इस दयालु राजा ने पशुबलि और नरबलि के पक्षपाति लोगों पर कठोरतापूर्वक राजदंड से काम नहीं लिया। काश्मीर और गांधार में भी इसने अनेक जैनमंदिरों का निर्माण कराया। इसकी मृत्यु ईसा पूर्व १४८ ( वि० पू० ६१ ) में हुई । अतः इसकी प्रायु लगभग ५० वर्ष की थी। इसके बाद इसके पुत्र श्रेष्ठसेन ने ईसा पूर्व ६१ तक ३० वर्ष राज्य किया । तत्पश्चात् इसके पुत्र तोरमाण तथा उसके पुत्र प्रवरसेन ने काश्मीर और गांधार पर राज्य किया । कल्हण ने प्रवरसेन का समय विक्रम का समकालीन लिखा है । इन दोनों का राज्यकाल लगभग ७० वर्ष रहा होगा । कल्हण ने यह भी लिखा है कि मेघवाहन का पौत्र तोरमाण चेदी वंश का था । इस प्रकार लगभग १७५ वर्षों तक चेदीवंश के खारवेल महामेघवाहन से लेकर उसके प्रपौत्र प्रवरसेन ने चार पीढ़ियों तक जैन राजाओं ने लगातार काश्मीर-गांधार में भी राज्य किया ।
इस प्रकार काश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में ईस्वी सन् से पूर्व १४४५ वर्ष से सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान के राज्यारूढ़ होने से लेकर विक्रम राजा के काल तक काश्मीर में जैनधर्म संबंधी इतिहास का उल्लेख किया है तथा जैनाचार्य रत्नशेखर सूरि ने अपने श्राद्धविधि प्रकरण में तो प्राग्वैदिक काल में पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ से भी पहले यहां पर जैनधर्म का उल्लेख किया है । जिसका उल्लेख हम बिमलाद्री - शत्रु जयाबतार के प्रसंग पर कर चुके हैं तथा इसी काल में सेठ भावड़ नामक जैन श्रावक ने १६ लाख स्वर्ण मुद्राएं खर्च करके काश्मीर देश में श्री ऋषभदेव, श्री पुंडरिक गणधर और चक्रेश्वरी देवी की तीन प्रतिमाएं जैनमंदिर का निर्माण कर प्रतिष्ठित कराई | वहां से उसने शत्रुंजय तीर्थपर जाकर वहां लेप्यमय प्रतिमाओं को बदलकर मणी ( रत्न विशेष) की जिनप्रतिमाएं स्थापित कीं । (श्राद्धविधि )
. इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इसके मध्यकाल में यहां जैनधर्म का अस्तित्व नहीं था अथवा इसके बाद जैनधर्म का यहां अस्तित्व नहीं था । इन कालों में भी यहाँ पर जैनधर्म का अवश्य प्रसार रहा है। जिसका उल्लेख हम प्रसंगानुसार आगे करेंगे ।
भगवान महावीर के बाद मौर्य राजाओं का राज्य भी काश्मीर-गांधार आदि जनपदों में रहा । ये सब सम्राट जैनधर्मानुयायी थे । इनके समय में भी यहां जैनधर्म का खूब प्रभाव रहा । इसका वर्णन हम मौर्य साम्राज्य के विवरण में करेंगे ।
(१४) परमार्हत महाराजा कुमारपाल सोलंकी
विक्रम की बारहवीं -तेरहवीं शताब्दी में परमार्हत कुमारपाल सोलंकी जैनधर्मी नरेश था । इसके धर्मगुरु जैनाचार्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरि थे। इसकी राजधानी गुजरात प्रदेश में पाटण थी। इसका राज्य विस्तार १५ देशों में था। इनके नाम इस प्रकार हैं : १. गुर्जर (गुजरात), २. लाट ३. सौराष्ट्र, ४. सिंधु- सौवीर, ५. मरुधर ( राजस्थान ), ६. मेदपाट, ७. मालवा, ८. सपादलक्ष, ६.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International