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________________ काश्मीर में जैनधर्म १३६ (तेईसवें तीर्थ कर) सन्तानीय श्री रत्नप्रभ सूरि ने उपकेशपुर (प्रोसिया नगरी) में वहां के राजा, मंत्री, राजपुत्रों तथा धनी-मानी सेठ-साहूकारों को जैनधर्मी बनाकर महाजन (प्रोसवाल) वंश की स्थापना की थी। शताब्दियों बाद चेदीवंश के खारवेल मेघवाहन ने अपने पूर्वजों के पराजय का बदला लेने के लिए पूर्वजों के इष्टदेव कलिंग-जिन को वापिस लाकर पुनः अपने यहां स्थापन करने के लिए ईसा पूर्व १६५ में मगध पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की और बहुत धन-माल के साथ कलिंग-जिन की प्रतिमा को वहां से लाकर एक विशाल मन्दिर में विराजमान किया। यह स्वयं प्रतिदिन इस श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) की प्रतिमा का पूजन करके आत्मकल्याण की साधना करता था। यह मन्दिर राजमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था । इसने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में कुमारी पर्वत पर जहाँ (जैनधर्म) का विजयचक्र प्रवृत्त है वहां "प्रक्षीण संस्कृति काय निषदो" (जैन गुफा) का निर्माण कराया । जिनपूजा में रक्त खारवेल ने जीव और शरीर की परीक्षा कर ली (जीव और शरीर के भेद को जान लिया)। भारत की चारों दिशाओं में दूर-दूर तक अपने राज्य का विस्तार किया। अपने राज्य के बारहवें वर्ष में महामेघवाहन खारवेल ने उत्तरापथ (उत्तर दिशा में अवस्थित काश्मीर आदि जनपदों) पर आक्रमण करके उनपर विजय पाई। (१३) परमाहत् महामेघवाहन खारवेल तथा इसके वंशजों की काश्मीर में राजसत्ता उड़ीसा की खण्डगिरि उदयगिरि से प्राप्त महामेघवाहन खारवेल के विषय में शिलालेख में इसके राज्यकाल के तेरहवें वर्ष (ई० पू० १६०)तक का वर्णन पाया जाता है । परन्तु इससे पागे के जीवन का कोई विवरण अभी तक प्रकाश में नहीं आया। इसके राज्य के तेरहवें वर्ष के आगे के जीवन काल का परिचय काश्मीर के इतिहास लेखक कवि कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में किया है । मात्र इतना ही नहीं परन्तु इसके प्रपौत्र प्रवरसेन तक चार पीढ़ियों का वर्णन भी दिया है। काश्मीर का राजा प्रवरसेन उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का समकालीन था। (परिशिष्ट अशोक ले० १८६२ के राधाकृष्ण मुकजि) इस राजतरंगिणी में कवि कल्हण ने मेघवाहन का वर्णन इस प्रकार किया है : १. हम लिख पाए हैं कि १-खारवेल महामेघवाहन का उड़ीसा में ई० पू० १९७ में जन्म हुआ और ई० पू० १७३ में वह राजगद्दी पर बैठा, पश्चात् २४ वर्ष राज्य करके परलोक सिधारा । ई० पू० १६१ में इसने उत्तरापथ में काश्मीर आदि पर विजय पाकर वहां भी अपनी राज्यसत्ता स्थापित की । उसकी मृत्यु ई० पू० १४८ में हुई । २. इसके बाद उसका पुत्र श्रेष्ठसेन राजगद्दी पर बैठा । इसका दूसरा नाम तुंगीन प्रसिद्ध था। ३. इसका पुत्र हिरण्य, दूसरा नाम तोरमाण राजा हुआ। इस चेदी वंश के राजा तोरमाण का विवाह इक्ष्वाकु वंश के राजा वजेन्द्र की पुत्री अंजना से हुआ था (राजतरंगिणी ३:१०५)। यह अंजना अपने पति के साथ कारागार में रही। वहां रहते हुए वह गर्भवती हुई । कारावास से छूटकर उसने एक कुम्हार के घर में एक पुत्र को जन्म दिया। इस बालक का नाम प्रवरसेन रखा (३:१०६)। प्रवरसेन माता को साथ लेकर तीर्थ यात्रा के लिए गया (३:२६५) महामेघवाहन ने काश्मीर तवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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