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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म लेख से यह बात भी पुष्ट हो जाती है कि भगवान महावीर ने निग्रंथ दीक्षा ग्रहण करने के बाद वस्त्र (देवदूष्य) रखा था और बाद में उसका त्याग किया था। इस मत से प्राचीन जैनागमों में वर्णित महावीर चरित्र की वास्तविकता प्रमाणित हो जाती है। (१२) कलिंगाधिपति परमाहत चक्रवर्ती खारवेल महामेघवाहन यह राजा उड़ीसा के चेदी वंश के राजा क्षेमराज का पौत्र तथा वृद्धिराज का पुत्र था। इसका पितामह, पिता तथा स्वयं सब जैनधर्मानुयायी थे। इसका जन्म उड़ीसा में ईसा पूर्व १९७ में हुआ था। इसने १५ वर्ष की आयु तक जैनधर्म के सिद्धांतों का अभ्यास किया तथा राज्यशासन चलाने की कलाओं का विधिवत अभ्यास किया था। पश्चात् इसी अल्पायु में युवराज पद प्राप्त किया। वर्ष तक पिता के साथ राज्य संचालन में हाथ बटाया। पिता की मृत्यु के बाद (ईसा पूर्व १७३) २४ वर्ष की आयु में यह राज्यगद्दी पर बैठा। चेदी वंश का उल्लेख वेदों में भी आता है। __ मगध देश के राजा प्रथम नन्द ने ई० पू० ४५७ (वीर निर्वाण सं०७०)में उड़ीसा पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की। यहां से वह बहुत धन लूटकर ले गया । साथ में यहां के राजमंदिर से प्रथम तीर्थंकर श्री आदि-जिन (श्री ऋषभदेव प्रभ) की प्रतिमा को भी उठाकर ले गया। इस नन्द की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) में थी। इसने वहां जैन मंदिर का निर्माण कराकर उसमें इस प्रतिमा को स्थापित किया। यह प्रतिमा वहां पर कलिंग-जिन के नाम से प्रसिद्ध हुई । इससे स्पष्ट है कि नन्दराजा भी जैनधर्मानुयायी था। यदि वह जैन न होता तो कलिंग-जिन को मंदिर में विराजमान न करता । यह घटना भगवान महावीर के निर्वाण के ७० वर्ष बाद की है। इसी वर्ष श्री पार्श्वनाथ 1. कलिंग-जिन की इस प्रतिमा की घटना से स्पष्ट है कि भगवान महावीर के निर्वाण के ७० वर्ष बाद इसे पटना में लेजाया गया। यह प्रतिमा इस काल से कितनी प्राचीन होगी इसका कोई पता नहीं है । भगवान महावीर के ६४ वर्ष बाद अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी का निर्वाण हुा । ये भगवान महावीर के पांचवें गणधर तथा प्रथम पट्टधर श्री सुधर्मास्वामी के शिष्य और पट्टधर थे। जम्बुस्वामी के निर्वाण के ६ वर्ष बाद यह प्रतिमा पटना में लेजाई गई । ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा प्रभु महावीर के निर्वाण से पहले ही उड़ीसा में विद्यमान थी । भगवान महावीर स्वयं उड़ीसा में पधारे थे। अतः उस समय उड़ीसा में भी जैनधर्म का बहुत प्रभाव था। नन्द राजा का उड़ीसा से भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा को ले जाना तथा राजा खारवेल द्वारा पुनः वापिस उड़ीसा में ले पाना यह एक सत्य प्रामाणिक व ऐतिहासिक घटना है। उड़ीसा की उदयगिरि व खण्डगिरि की गुफाएं तथा इन गुफाओं में आज से बीस शताब्दियों की पूर्व की इस घटना को शिल्प में चित्रित किया गया है । ये गुफाएं ईसा पूर्व पहली, दूसरी सदी की बनी हुई हैं। भगवान महावीर के काल से यह जिनप्रतिमा की मान्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। __ जिनप्रतिमा पूजन के विरोधी जो अपने आपको जैन होने का गौरव मानते हैं । वे लोग एड़ी से चोटी तक दावा करते हैं कि जिनप्रतिमा की मान्यता अर्वाचीन है, प्रतिमा पूजन में हिंसा है, कर्मबन्ध है, जैनागमों में जिनप्रतिमा पूजन का कोई उल्लेख नहीं है इत्यादि । इससे यह मान्यता सर्वथा अनर्गल सिद्ध हो जाती है। जैनागम तथा इतिहास से एवं उपलब्ध पुरातत्त्व सामग्री से जिनप्रतिमा की मान्यता वेदकाल से भी प्राचीन सिद्ध हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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