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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म नहीं है। स्त्री ने जब जलौक को बोधिसत्व के नाम से संबोधित किया तब जलौक ने उस स्त्री से पूछा कि 'बोधिसत्व किसे कहते हैं ?' इससे स्पष्ट है कि जलौक बोधिसत्व के नाम से ही अपरिचित था, उसे यह भी पता नहीं था कि बोधिसत्व कौन है ? अतः उसे बुद्धधर्म का अनुयायी मानना नितान्त भूल है । ३-उस समय तो बुद्धधर्म का अस्तित्व ही नहीं था और न ही इस विषय की उसे जानकारी थी। अतः यह स्पष्ट है कि जलौक अपने पिता के समान ही दृढ़ जैनधर्मी था। तथा इसने जैनधर्म के प्रसार के लिए अनेक जैनमंदिरों का निर्माण और जैनधर्म का प्रचार किया।
(५) राजा जैनेह-यह सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान का भतीजा था। यह भी अपने चाचा के समान दृढ़ जैनधर्मी था और अपने पूर्वजों के समान ही इसने भी जैनधर्म को पुष्ट किया।
(६) राजा ललितादित्य-इसका समय लगभग बुद्ध और महावीर का है। यह भी जैन धर्म का अनुयायी था । इसने भी अनेक जैन मंदिरों का निर्माण कराया था।
चक्रे बृहच्चतुःशाला बृहच्चत्य बृहज्जिनः ।
राजा राजविहार सतिरजाः सततो जिनम् ॥ ४:२०० ।। अर्थात् - इस निराभिमानी राजा ने बड़े-बड़े चौमहले (चारमंज़िले) भवनों (मकानों) का . निर्माण कराया । विशाल चैत्यों(जिनमंदिरों) एवं विशाल जिनमूर्तियों युक्त राजविहार का निर्माण कराया। इस मंदिर के निर्माण में इस ने चौरासी हजार (८४०००) तोले सोने का उपयोग किया था। (कल्हण राजतरंगिणी ४:२००)
इस के अतिरिक्त उस उदार जैन राजा ने (१) रुद्र-शिव का पाषाण मंदिर, (२) मार्तण्ड (सूर्य) भगवान की स्थापना, (३) विष्णु भगवान की स्थापना (४) परिहास केशवनाथ की सप्तमुखी प्रतिमा की स्थापना, (५)५४ हाथ (८१फुट) ऊंचा जैनस्तूप निर्माण करवा कर उस पर गरुड़ की स्थापना की (गरुड़ जैनों के प्रथम तीर्थंकर की शासनदेवी चक्रेश्वरी की सवारी है। तरंग ४-कल्हण राजतरंगिणी)
"तोलकानां सहस्राणि चतुर्ष्याधिकानि सः । अशीति विधदे हेम्नो मुक्ता केशव विग्रहे ॥ (४:२०२) ॥ रिति प्रस्थ सहस्रेस्तु तेन तायाद भैरवः सः ।
व्योम-व्यापिस्तु श्री मन्वृहद् बुद्धो व्याचियेत् ॥ ४: २०३ ॥ अर्थात्-(१) चौरासी हज़ार तोले के सोने और मोतियों की कृष्ण की मूति (२) चौरासी हज़ार प्रस्थ वज़न कांसे की बुद्ध की मूर्ति को गगनचुम्बी मंदिर बनाकर उस में स्थापित किया।
__उपर्युक्त विवरण में दो बातों का मुख्य रूप से उल्लेख है । (१) राजा ललितादित्य ने जिन प्रतिमाओं सहित अनेक जैन मंदिरों का निर्माण काश्मीर में करवाया तथा स्वर्णमयी जिनप्रतिमाओं से युक्त एक विशाल राजविहार का निर्माण कराया जिस पर चौरासी हज़ार तोला सोना खर्च हा । (२) राजकोष से उसने पौराणिक ब्राह्मणों की मान्यता के छह मंदिरों तथा एक विशाल बौद्ध मंदिर का भी निर्माण कराकर उन-उन मतानुयायियों को सौंप दिये।
राजविहार के नाम से निर्मित जैनमंदिर का अर्थ है कि राजा के अपने मान्य इष्टदेव जैन तीर्थंकरों का मंदिर (जैनमंदिर) । इस से यह स्पष्ट है कि यह राजा स्वयं जैनधर्मानुयायी होते हुए भी इतना उदार था कि पौराणिक ब्राह्मणों तथा बौद्धों के मंदिरों का भी निर्माण करवा कर उन की मान्यता वालों को सौंप दिये । (३) इसके जैन होने का दूसरा प्रमाण यह है कि इसके आदेश से
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