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काश्मीर में जैनधर्म
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एक दूसरे विशाल जैनमन्दिर का भी निर्माण कराया था। जिसमें जैन तीर्थंकरों की स्वर्णमयी प्रतिमाओं को बहुत संख्या में स्थापित किया । इस मन्दिर का नाम ' अशोकेश्वर' रखा था । जिसका अर्थ सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान के इष्टदेव जिनेन्द्रप्रभु का मन्दिर होता है ।। १:१०६ ॥ सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान का समय '
Safar अपनी राजतरंगिणी में लिखता है कि "अशोक एक राजा का नाम है, जिस के लव आदि पूर्वजों का पूर्व में वराहमिहिर ने वर्णन किया है । ( १:२० ) इतिहासकार मुसलमान हसन लिखता है कि वह अशोक कलयुग संवत् १६५५ ( ई० पू० १४४५) में अपनी इच्छानुसार काश्मीर के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो गया । उस के पश्चात् उसने भारत के परगना खादर में एक आलीशान नगर बसाया । उसमें बड़े-बड़े सुन्दर हाटों बाजारों का निर्माण कराया तथा बहुत मजबूत और सुंदर भवनों का भी निर्माण कराया। प्राचीन समय के लेखक इन भवनों की संख्या छह लाख बतलाते हैं । इस नगर को घेरती हुई एक बहुत ऊंची दीवाल बनाई । पनगलवा और पतेख नामक गांव आबाद करके ब्राह्मणों को भेंट किये और अपने लिये जैनधर्म पसन्द किया। उस धर्म के प्रचार और प्रसार के लिये दिलोजान से कोशिश की। उसने सारे काश्मीर देश की प्रजा को जैनधर्म के 'अनुकूल आचरण के लिये नियम बनाए । कसबा बिजवारह में इसने अपने जैनधर्म के बहुत ही आलीशान और मजबूत मंदिर बनवाये । इसके पुत्र का नाम जलौक था । बाबू हरिश्चन्द्र ने अपनी पुस्तक इतिहास समुचय में लिखा है कि काश्मीर के राजवंश में ४७ वां राज्य अशोक का हुआ । इसने ६२ वर्ष तक राज किया । श्रीनगर इसी ने बसाया और जैनमत का प्रचार किया। राजा शचिनर का यह भतीजा था । मुसलमान इतिहासकारों ने इसे शुकराज या शकुनि का बेटा कहा है । इस के समय में श्रीनगर में छह लाख मनुष्यों की आबादी थी। इसका सत्ता समय ई. स. पूर्व १३८४ का है । संभवतः यह समय इसकी मृत्यु का होगा । ( इतिहास समुचय पृष्ठ १८ ) ।
(४) राजा जलौक- अपने पिता सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान की मृत्यु के बाद ४८ वां शासक Tata काश्मीर की राजगद्दी पर बैठा । यह भी अपने पिता के समान दृढ़ जैनधर्मी था । इसने अपने राज्य में जैनधर्म के प्रचार और प्रसार के लिये बहुत कार्य किया। कुछ लेखकों ने इसे बौद्धधर्मी होने का उल्लेख किया है । परन्तु उनकी यह मान्यता निराधार है, साधार नहीं है । इस विषय में १ - पहली बात तो यह है कि यह राजा ईसा पूर्व १४वीं शताब्दी में हुआ है और बुद्धधर्म की स्थापना शाक्य मुनि गौतम ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी में की । तथागत गौतमबुद्ध निग्रंथ महावीर के समकालीन । अतः सत्यप्रतिज्ञ जलौक महान के समय बुद्धधर्म इस विश्व में पैदा ही नहीं हुआ था । २ यद्यपि इसे बौद्धधर्मानुयायी बतलाने के लिये किसी लेखक ने असफल प्रयास किया है और उसने जलौक को एक स्त्री द्वारा बोधिसत्व की उपमा देते हुए संबोधित करने का उल्लेख किया है तथापि उसकी संगति बैठती
1. सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान का समय भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व छठी शताब्दी यानी ईसा पूर्व १४४५ वर्ष का है तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक का राज्यारूढ़ होने का समय ईसा पूर्व २७४ का है । इस प्रशोक मौर्य की मृत्यु ईसा पूर्व २३२ में हुई । इन दोनों प्रशोको के राज्यारोहण के समय में १९७१ वर्षो का अन्तर है। यानी १२ शताब्दियों का अन्तर है । श्राज तक के सब इतिहासकार इन दोनों को एक मानकर द्वितीय अशोक को जैनधर्मानुयायी सिद्ध करने 'चेष्टा में भूल के पात्र बन रहे हैं । अतः इतिहासकारों को इस भूल का अवश्य सुधार करना चाहिए ।
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