SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म सब लोगों ने ऋषभदेव भगवान की वन्दना की । राजा और रानियों का अभिग्रह पूरा हुआ। इस समय श्री भगवान के दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से उनका शरीर पुलकित हो गया । तत्पश्चात् सबने स्नात्र पूजा की, ध्वजा चढ़ाई, माला पहिराई तथा अन्य धर्मकृत्य करके संघ वहाँ से वापिस विदा हुआ । राजा सात बार मार्ग चला और उसने सात बार पुनः पुनः लौटकर इस तीर्थ की यात्रा को । बार-बार ऐसा करने पर सिंह मंत्री ने जितारि राजा से इसका कारण पूछा। राजा ने कहा कि --- बालक जिस तरह माता को नहीं छोड़ सकता, वैसे ही मैं इस तीर्थराज को अपनी आँखों से ओझल नहीं कर सकता, श्रतएव मेरे यहीं रहने के लिये एक उत्तम नगर की रचना करो । बुद्धिमान मंत्री ने अपने मालिक की आज्ञा पाते ही वास्तु शास्त्र में वर्णित रीति के अनुसार काश्मीर देश में इस तीर्थ की तलहटी में विमलपुर नाम का एक नगर बसाया । राजा जितारि वहीं रहकर प्रतिदिन इस महातीर्थ की वन्दना- पूजा करने लगा । इसी ने इस तीर्थ का नाम शत्रुंजय रखा । (२) काश्मीर देश के अन्दर विमलाचल के पास एक आश्रम में गांगलि नामक ऋषि का श्राश्रम, विमलाचल तीर्थ की रक्षा के लिए चक्रेश्वरी देवी का काश्मीर में आगमन, काश्मीर देश में यक्ष के स्थापित किये हुए विमलाचल तीर्थ का जिक्र, हंस पक्षी द्वारा अपनी चोंच में फूलों को लेकर उनसे इसी तीर्थ पर भगवान ऋषभदेव की पूजा करना । शुकराज का विमान में बैठ कर काश्मीर में विमलाचल की यात्रा करने आना इत्यादि [ श्राद्धविधि प्रकरण इससे स्पष्ट है कि काश्मीर में पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ के समय से भी पहले जैनधर्म विद्यमान था । इस तीर्थ को हमने विमलाचल - शत्रुं जयावतार के नाम से सम्बोधित इस लिये किया है कि यह तीर्थ राजा जितारि का अभिग्रह पूरा करने के लिए यक्ष द्वारा निर्मित किया गया था । (३) कवि कल्हण ने अपनी राजतरंगिनी में लिखा है कि शकुनि का प्रपौत्र सत्य प्रतिज्ञ अशोक महान कलयुग संवत् १३५५ ( ईसा पूर्व १४४५) में काश्मीर के राजसिंहासन पर बैठा और उसने जिनशासन ( जैनधर्म) को स्वीकार किया । यह समय लगभग महावीर के निर्वाण से ८१८ वर्ष पूर्व और पार्श्वनाथ के निर्वाण से ५६८ वर्ष पूर्व का है । कवि कल्हण के मत से सत्यप्रतिज्ञ प्रशोक का समय पार्श्वनाथ के निर्वाण से ५१७ वर्ष पूर्व का ' है । अर्थात् सत्यप्रतिज्ञ प्रशोक का समय जैन के बाईसवें तीर्थंकर श्री प्ररिष्टनेमि (नेमिनाथ) के तथा पार्श्वनाथ के मध्य काल का है । “प्रपौत्र शकुनेस्तस्य भूपतेः प्रपितृव्यजः । अथ वृहदशोकास्यः सत्यसंधो वसुधराम् ॥ १:१०१ ॥ यः शांतवृजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् । शुष्कले वितस्तात्रो विस्तार स्तूपमंडलैः ॥ १:१०२ ॥ धर्मारण्य विहारान्नचिनास्तत्र पुरे अभवत् । यत्कृतं चैत्यमुत्सावधि प्राप्त्येक्षय क्षणम् ॥ १:१०३ ॥ अर्थात् - तत्पश्चात् (निःसंतान राजा शचीनर के बाद) राजा शकुनी के प्रपौत्र सत्यप्रतिज्ञ अशोक महान् ने (काश्मीर की) वसुन्धरा (पृथ्वी) पर राज्य किया जब उसने जिनशासन (जैनधर्म) स्वीकार किया था तब इसके पाप शांत हो गए थे । शुष्कलेत्र तथा वितस्तात्र इन दोनों नगरों को इसने जैन स्तूप मंडलों (समुह ) से आच्छादित कर दिया था। अनेक जैनमंदिरों तथा नगरों का भी निर्माण किया था। जिन में से विस्तानपुर के धर्मारण्य विहार में इतना ऊंचा जैनमन्दिर बनवाया था कि जिस की ऊंचाई को प्रांखे देखने से प्रसमर्थ हो जाती थीं ।। १:१०१-१०३ ॥ 1 - संभव है कि यह पा. नि. पू० ५६८ में सिंहासनारूढ़ होकर ५१ वर्ष राज्यपालन करके पार्श्व निर्माण पूर्व ५१६ में मृत्य पाया होगा । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy