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गांधार- तक्षशिला में जैनधर्मं
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का बड़ा प्रभाव था । यह नगर कहीं पर अवस्थित था, इसका भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर जो वर्णन मिलता है, उनके प्राधार पर हम यहाँ पर कुछ विचार करेंगे ।
१० - आर्य वज्रसेन के चार शिष्य थे, उनसे चार शाखाएं निकलीं । (१) आर्य नागिल से आर्य नागिला, (२) प्रार्थ पोमिल से आर्य पोमिला, (३) श्रार्य जयन्त से प्रार्य जयन्ति, (४) आर्य तापस से प्रार्य तापसी शाखा निकली ।
११ - स्थविर उत्तर बलिस्सह से उत्तर बलिस्सह गण निकला। उनके शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा चार शाखाएं निकलीं । (१) कोशांबिका, (२) कौटुबिनी, (३) सौरितिकी, (४) चन्द्रनागरी । अनेक गण, कुल, शाखाओंों का स्थविरावलीकार को स्मरण नहीं रहा इस लिये उनका उल्लेख नहीं हुआ ।
उपर्युक्त सब गण, शाखाएं कुल सम्राट सम्प्रति मौर्य के धर्मगुरु आर्य सुहस्ति (वि० पू० तीसरी शताब्दी) से लेकर विक्रम की दूसरी शताब्दी श्री वज्रसेन सूरि वि० सं० १५० तक बन चुके थे । दिगम्बर मत वि० सं० १३६ में निकला ( विशेषावश्यक भाष्य ) ।
इस स्थविरावली से स्पष्ट है कि भगवान महावीर के बाद आठवें पाठ पर प्रार्य सुहस्ति तक जैन श्रमण संघ का निर्ग्रथ गण ही चालू रहा । इसीलिए अशोक और सम्प्रत्ति के स्तूप लेखों पर जैन साधुयों की इन्हीं परम्परा के लिए निर्ग्रथ शब्द का उल्लेख किया गया है । किन्तु वर्तमान दिगम्बर मत के नंगे साधुनों के लिये नहीं । दिगम्बर पंथ की स्थापना तब तक हुई ही नहीं थी । चन्द्रगुप्त मौर्य के समय तथा उसके बाद में पंजाब में विचरण वाले जिन जैन श्रमणों, निग्रंथों, वणवासी ऋषियों आदि का उल्लेख किया है । वे सब इसी परम्परा के थे जो इस समय श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक संघ के नाम से प्रसिद्ध है ।
ज्ञात होता है कि परमार्हत् सम्राट सम्प्रति मौर्य तथा उसके धर्माचार्य प्रार्य सुहस्ति ने भारत तथा भारत से बाहर आर्य-अनार्य देशों में जैनधर्म के सर्वव्यापक प्रचार के लिए जो योजना बनाई होगी उसकी सफलता के लिए दूर दूर तक विहार के कारण उस उस समय के युगप्रधान प्राचार्यों ने अलग-अलग गीतार्थ मुनियों की निश्रा में उनके गणों, शाखानों, कुलों के रूप में विहार की व्यवस्थित योजना बनाई होगी ताकि वे अपने-अपने नेता की आज्ञा से सुनियोजित कार्यक्रम के अनुसार अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकें एवं गीतार्थ गुरुनों की श्राज्ञा में रहते हुए निरातिचार चारित्र का पालन करते हुए निर्ग्रथ साधु की चर्या में भी दृढ़ रहें ।
इन गणों, शाखाओं, कुलों में परस्पर न तो कोई सामाचारी का भेद था और न ही कोई बिरोध था । ये सब गण, शाखाएं और कुल श्री सुधर्मास्वामी गणधर के निर्ग्रथ गण के ही थे जो आज-कल श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक संघ के नाम से सारे भारत में विद्यमान हैं ।
उपर्युक्त स्थविरावली को देखने से यह भी स्पष्ट है कि इसमें दिये गये गणों, गच्छों, शाखाओं, कुलों के नाम भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के नाम में सारे भारतवर्ष का समावेश हो जाता है । उन-उन क्षेत्रों में विचरण के कारण ही प्रायः स्थानों के नाम से उनके गण प्रादि प्रसिद्ध हो गए थे अथवा मुख्य प्राचार्यों के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे ।
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१२ – आर्य महागिरि, आर्य सुहस्ति, गुणसुन्दर सूरि, श्यामाचार्य, स्कंदलाचार्य, रेवतीमित्र, श्रीधर्म, भद्रगुप्त, वज्र, श्रीगुप्त तक दसपूर्वी हुए । यानि विक्रम की दूसरी शताब्दी तक तीर्थ -
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