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— मध्य एशिया और पंजाब में जैनमध हम लिख पाये हैं कि निग्रंथ गण के प्रार्य सुहस्ति (जो मौर्य सम्राट सम्प्रति के धर्मगुरु थे) के शिष्य कोटिक गण के प्राचार्य सुप्रतिबद्ध के शिष्यों-प्रशिष्यों द्वारा प्रश्नवाहनक कुल, उच्चनागरी शाखा का पंजाब में प्रादुर्भाव हुआ । उच्चनागरी शाखा कोटिक गण से निकले हुए प्रश्नवाहनक आदि ४ कुलों से निकलने वाली शाखाओं में से एक थी। यह शाखा प्रार्य शान्तिश्रेणिक से लगभग वीर निर्वाण संवत् ४२० (विक्रम पूर्व ५० वर्ष तथा ईसा पूर्व १०७ वर्ष) में उच्चनगर में निकली थी । प्रार्य शांति श्रेणिक आर्य सिंहगिरि के गुरु भाई थे । इसकी पुष्टि मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्रतिमाओं के लेखों से भी होती है । कर की द्वादशांग के सम्पूर्ण से मात्र चार पूर्व ज्ञान कम के ज्ञाता श्रमण विद्यमान थे। (११ अंग और १० पूर्वो के ज्ञाता थे)----इस समय तक दिगम्बर मत की उत्पत्ति नहीं हुई थी। १–युनानियों ने पंजाब में जिन पोरेटाई और वैरेटाई (आर्य और व्रात्य) जैन साधुओं का उल्लेख किया है वे श्वेताम्बर जैन साधुओं की इसी आर्य परम्परा के थे जो महाव्रतधारी तथा विशिष्ट ज्ञानवान थे, निस्पृह, अपरिग्रही, शाकाहारी, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी भी थे । श्वेताम्बर जैन साधुनों का वणवासी गच्छ भी था जो पाणितल भोजी और उपर्युक्त गुणों से अलं कृत था।
२-कल्पसूत्र स्थविरावली व्याख्यान ८ 2-कंकाली टीले मथुरा से प्राप्त चौमुखी जिन-प्रतिमानों पर उच्चनागरी शाखा के लेख :
(१) B/70 पाषाण प्रतिमा १०।। इंच लम्बी चौमुखी नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है।
एक ही पाषाण में चारों तरफ एक-एक तीर्थंकर की प्रतिमा है। ऐसी प्रतिमाएं सर्वतोभद्र कहलाती हैं। एक के सिर पर सर्प के सातफण हैं, यह पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। प्रत्येक की छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह है। सिंहासन के चारों तरफ प्रतिमा को दान करने वालों की दो-दो मतियां बनी हैं। इस प्रतिमा के ऊपरी भाग में छेद है। प्रतिमा पर लेख इस प्रकार खदा है :
"सिद्धं [सं०] ३५ हे ० १ दि० १२ अस्य पूर्वाये कोटियतो [गणतो] ब्रह्मदीपिका (ब भलिज्ज) [कुल] तो रच्चनागरीतो शाखातो.....[शा] नी [या] ..... वोधिलाभाय विष्णु देवा ॥
इस प्रतिमा के लेख से स्पष्ट है कि कोटिक गण से निकले हुए वंभलिज्ज कुल की उच्चनागरी शाखा के किसी प्राचार्य द्वारा इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई।
(२) B/71 पाषाण प्रतिमा खड़ी नग्न १० इंच; चारों तरफ खड़ी चार तीर्थ करों की प्रतिमाएं हैं । तीन प्रतिमाओं पर कोई चिन्ह नहीं है । एक पर नाग का चिन्ह है। छातियों पर श्रीवत्स का चिन्ह है । इसके चारों तरफ लेख खुदा हुआ हैसिद्धं [सं०] ५ हे ० ४ दि० २० अस्य पूर्वाये क [टोयतो गणतो] उच्चनागरीतो शाखातो बाहादा...
इस प्रतिमा पर भी कोटिक गण की उच्चनागरी शाखा के किसी आचार्य द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है ।ऐसी चौमुख प्रतिमा पर प्रायः चार १-श्री ऋभदेव, २-श्री नेमिनाथ, ३-श्री पार्श्वनाथ, ४-श्री महावीर इन चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएं होती हैं .
कोटिक गण, वंभलिज्ज कुल, उच्चनागरी शाखा ये सब श्रमण श्वेताम्बर जैनधर्म के अनुयायी थे। (देखें कल्पसूत्र स्थविरावली व्याख्यान ८)।
इस से यह भी स्पष्ट है कि श्वेताम्बर जैन धर्मानुयायी तीर्थ करों की नग्न प्रतिमाओं को भी मानते हैं और पूजा-उपासना के लिए इन को मन्दिरों में स्थापित भी करते आ रहे हैं।
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