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________________ ११८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म राज्य देकर स्वयं प्रतिबोध पाकर “प्रत्येकबुद्ध"1 होकर जैन श्रमण की दीक्षा ग्रहण की और घाती कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् पथ्वीतल पर विहार कर स्व-पर कल्याणकरते हुए अन्त में सर्व कर्मों को क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया । यह राजर्षि उज्जयनी के राजा चंडप्रद्योत का तथा भगवान महावीर का समकालीन था। ६, मौर्यकाल में सम्राट सम्प्रति के समय में जैनाचार्य आर्य सुहस्ति उनके शिष्य पट्टधर जैनाचार्य आर्य सुस्थित व आर्य सुप्रतिबद्ध और इनके शिष्य आर्य इन्द्रदिन्न विद्यमान थे । सम्प्रति का राज्याभिषेक वीर निर्वाण संवत् २४४ (ईसा पूर्व २८३) में हुआ। दो वर्ष बाद प्रार्य सुहस्ति से प्रति- . बोध पाकर इसने श्रावक के सम्यक्त्व मूल बारह व्रत ग्रहण किये और परमार्हत् बना । यद्यपि इसका पितृवंश जैनधर्मानुयायी था इस लिये इसको जन्म से ही जैनधर्म के संस्कार प्राप्त थे तथापि इसके पूर्वजन्म के भिखारी अवस्था से प्रार्य सुहस्ति उद्धारक थे, इसलिए उनसे विधिवत् बारह ब्रत धारण कर उसने उन्हे अपना धर्मगुरु स्वीकार किया। इसने ५४ वर्ष मतांतर से ५० वर्ष तक राज्य किया। वीर संवत् २६८ में इसकी मृत्यु हो गई। इसके गुरु आर्य सुहस्ति का स्वर्गवास वीर संवत २६१ में यानी सम्प्रति से ७ वर्ष पहले हुआ था आर्य सुस्ति से श्रावक के १२ व्रत स्वीकार करने के बाद सम्प्रति ५२ वर्ष तक जीवित रहा। __ आर्य सुहस्ति के पट्टधर शिष्य आर्य सुस्थित सूरि तथा आर्य सुप्रतिबद्ध सूरि दो गुरु भाई थे। ग्रार्य सस्थित ने वीर संवत् २७४ में दीक्षा ग्रहण की थी। प्रार्य सुप्रतिबद्ध ने भी थोड़े-बहुत आगे पीछे दीक्षा ग्रहण की होगी। क्योंकि पट्टावलिकार लिखते हैं कि इनके जीवन सम्बन्धी विवरण ज्ञात नहीं होने से दीक्षा का समय लिख नहीं सके। किंतु यह बात तो निश्चित है कि आर्य सुप्रसिद्ध आर्य सुहस्ति के शिष्य होने के कारण सम्प्रति के समय में ही युगप्रधान पद प्राप्त कर चुके होंगे। आर्य सुहस्ति का स्वर्गवास वीर संवत् २६१ में होने से प्रार्य सुप्रतिबद्ध उनके पश्चात् युगप्रधान हुए। उस समय सम्प्रति जीवित था। आर्य सुप्रतिबद्ध के शिष्य पट्टधर प्रार्य इन्द्रदिन्न सूरि ने भी दीक्षा सम्प्रति के जीवनकाल में ही ले ली होगी ऐसी धारणा अनुचित नहीं है । क्योंकि सम्प्रति की मृत्यु वीर निर्वाण संवत् २६८ में हुई थी ऐसा पहले हम लिख चुके हैं। पट्टावलियो में महावीर के नवे पाट पर प्रार्य सुप्रतिबद्ध से लेकर बारहवें पट्टधर आर्य सिंह सरि(चार पट्टधरों) तक का कुछ भी जीवन वृतांत नहीं मिलता और न इनके जीवन वृतांत अन्यत्र ही देखने में आये हैं । इसलिये ज्ञात होता है कि इन चारों पट्टधरों का विहार अपने शिष्य परिवार के साथ पंजाब में हा होगा। इसी कारण से पट्टावलियों के लेखक श्रमण पुंगव गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान तथा मथ रा आदि प्रदेशों में विचरण करने वाले होने से पंजाब में विचरणे वाले मुनियों के विषय की जानकारी से अनभिज्ञ थे, इसलिये उनके जीवन परिचय देने में असमर्थ रहे । ऐसा ज्ञात होता है। 1. प्रत्येक बुद्ध-जो किसी बाहरी एक वस्तु को देखकर वैराग्यवान होते हैं। जैन दीक्षा लेकर साधु के समान विहार करते हैं, परन्तु गच्छ में नहीं रहते । सन्ध्या समय के बादल जिस प्रकार रंग बदलते हैं, उसी प्रकार संसार में पौद्गलिक वस्तु क्षणभंगुर है, ऐसा विचार आने पर वे किसी प्रकार वैराग्य जनक निमित्त को पाकर निग्रंथ श्रमण की दीक्षा लेते हैं और केवलज्ञान पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उन्हें प्रत्येक बुद्ध कहते हैं। उन्हें गुरु के उपदेश की अपेक्षा नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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