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गांधार-तक्षशिला प्रदेश में जैनधर्म
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राजा ने घोड़े की रास ढीली कर दी। रास ढीली होते ही घोड़ा एक दम रुक गया । इस प्रकार घोड़े के रुकजाने से राजा को ज्ञात हुआ कि घोड़ा उल्टी शिक्षा पाये हुए है। राजा ने घोड़े को एक वृक्ष के नीचे बांध दिया और विश्राम करके फलादि खाकर पेट भरा । पश्चात् रात बिताने के लिए राजा समीपवर्ती पहाड़ पर चढ़ा। इस पहाड़ का नाम था पुण्ड्रवर्धन । ज्ञात होता है कि इसी पर्वत के कारण इसके आसपास के क्षेत्र में प्राबाद इस नगर का नाम पुण्ड्रवर्धन पड़ा होगा और पर्वत श्रेणियों से घिरे हुए होने के कारण राज्य सुरक्षा हेतु सिंहरथ ने इसे अपनी राजधानी बनाया होगा। सम्भवतः . इसी पर्वत के नाम से ही इस सारे क्षेत्र का नाम पुण्ड्र जनपद प्रसिद्धि पाया होगा । पुण्ड्रवर्धन का नाम अाजकल पेशावर प्रसिद्ध है । पेशावर तक्षशिला की उत्तर दिशा में हैं । वहां उसने सात मंज़िले ऊँचे मकान को देखा और वह उस महल में प्रवेश कर गया । प्रवेश करते ही राजा ने वहां एक सुन्दर युवती देखी। राजा को देखते ही वह कन्या उठ कर खड़ी हो गई और राजा को बैठने के लिए उच्चासन दिया । एक दूसरे को देखते ही दोनों में प्रेम हो गया । वहां कुछ देर बैठने के बाद राजा ने उस सुन्दरी से उसका परिचय पूछा और इस एकान्त वन में अकेले ही पर्वत पर इस महल में निवास करने का कारण भी पूछा । सुन्दरी ने उत्तर दिया - पहले मेरे साथ विवाह करो फिर मैं आपको सभी बातें बताऊंगी। यह सुनकर राजा उस भवन में विद्यमान श्री ऋषभदेव के जैन मंदिर में गया। उसके निकट ही एक सुन्दर वेदिका थी। राजा ने बड़ी भक्ति पूर्वक प्रभु की वन्दना और स्तुति की। जिनेश्वर प्रभु के दर्शन करके वापिस पाकर राजा ने इस सुन्दरी के साथ गांधर्व विवाह करके उसे अपनी रानी बनाया । ज्ञात होता है कि इस जनपद में ऋषभदेव आदि के अनेक जैन मंदिर होंगे। क्योंकि श्री जिनप्रभ सूरि ने अपने विविध तीर्थकल्प के ४५ वें कल्प में ८४ जैन महातीर्थों का वर्णन किया है उसमें लिखा है कि- "पण्ड्रपर्वते श्री वीरः" अर्थात् पुण्ड्रपर्वत पर श्री महावीर प्रभु का जैन महातीर्थ है।
राजा सिंहरथ ने विवाह कर लेने के बाद अपनी इस नवविवाहिता पत्नी के पास रात्री बिताई । दूसरे दिन प्रातःकाल श्री जिनेन्द्रदेव की वन्दना करके राजा उस भवन के मंडप में स्थित सिंहासन पर बैठा और रानी उसके निकट बैठ गई । फिर उसने अपनी कथा प्रारंभ कर सारा वृतांत राजा को कह सुनाया। उस राजकन्या का नाम कनकमाला था । राजा सिंहरथ कुछ दिन कन कमाला के पास रहकर अपनी राजधानी को लौट गया। रानी कनकमाला के वहां उस पर्बत पर स्थित महल में राजा अाया जाया करता था। अतः अधिकतर पर्वत पर रहने के कारण सिंहरथ राजा का नाम नग्गति हो गया। नग का अर्थ पर्वत भी होता है।
_____ कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन राजा ससैन्य भ्रमण करने के लिए निकला। वहां उस ने नगर के बाहर एक आम का वृक्ष देखा । राजा ने उसमें से एक मंजरी तोड़ ली । उसके पीछे पाते हुए लोगों ने भी उस पेड़ से भंजरी पल्लव आदि तोड़े। लौट कर पाते हुए राजा ने उस पेड़ को देखा कि वह एक ठूठ मात्र रह गया है । कारण जानने पर राजा को विचार आया कि-- "अहो लक्ष्मी कितनी चंचल है" । ऐसा विचार आने पर उसे संसार से वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को
1. तो कालेण जम्हा नगे हईइ तम्हा 'नग्गइ एस ति' पइट्ठियं नामं लोएण राइणो।
(उत्तराध्य यन सूत्र नेमिचन्द्र कृत टीका पृष्ठ १४४२) 2. बौद्धग्रंथ कुंभकार जातक में इस के प्रतिबोध का कारण कंकन की ध्वनि होना लिखा है ।
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