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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म अर्थात्- - समस्त भरतक्ष ेत्र के उस भावि अधिपति को आनन्द की अतिशयता से प्रगाढ़ स्नेह करने वाले बन्धु समूह ने 'भरत' ऐसा कह कर संबोधन किया। उस भरत के नाम से हिमालय से समुद्र पर्यन्त यह चक्रवर्तियों का क्षेत्र भारतवर्ष नाम से प्रतिष्ठित हुआ । ( महापुराण भगवज्जिनसेनाचार्य कृत १५/१५८- १५९) इसी आशय के उल्लेख दिगम्बर महापुराण १७।७६ ; तथा पुरूदेव चम्पू ६ । ३२ आदि ग्रन्थों में भी हैं । ४ श्वेतांबर जैन ग्रंथ - वसुदेव हिण्डी प्रथम खण्ड पृष्ठ १८६ में लिखा है कि "इह सुरासुरेन्द्र वंदिय चलनारविदो उसभी नाम पढमो राया । जगप्पियामहो आसि । तस्स पुत्त सयं । दुवे पहाणा भरहो बाहुबलि य । उसभ सिरी पुत्त-सयस्स पुर-सयं च दाऊण पव्वइणो । तत्त्थ भरहो भरहवासचूड़ामणि, तस्सेव नामेण इह भारहवासं ति पव्वुच्चति ।" अर्थात् - यहाँ जगत्पिता ऋषभदेव प्रथम राजा हुए। सुर और असुर दोनों के ही इन्द्र उनके चरण कमलों की वंदना करते थे । उनके सौ पुत्र थे, उनमें दो प्रधान थे । भरत और बाहुबली । ऋषभ देव ने सौ पुत्रों को राज्य बांट दिया और स्वयं प्रव्रजित हो गये । भरत को भारतवर्ष का राज दिया ( भारतवर्ष का चूड़ामणि- शिरोमुकुट भरत हुआ)। उसी नाम से इस देश को भारतवर्ष कहते हैं । इसी प्रकार जंबुदीप पण्णति नामक जैनागम यादि में भी वर्णन मिलते हैं । अतः यह बात सर्वथा सत्य है कि हिमालय के दक्षिण से लेकर समुद्र तक के क्षेत्र का नाम भारतवर्ष चक्रवर्ती भरत के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ । जो जैनों के प्रथम तीर्थंकर प्रर्हत् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे । अब बात रह जाती है कि राजा तो बहुत हुए, प्रतापशाली और यशस्वी भी हुए किन्तु उन के नाम पर इतने बड़े देश का नामकरण क्यों न हुआ ? यह देश जो पहले ग्रार्यावर्त या हेमवत कहलाता था और किन्हीं ब्राह्मण पुराणों के मत से ऋषभदेव के पिता नाभि कुलकर के नाम से जनाभ भी कहलाता था वह भरत के उपरांत भारतवर्ष हो गया, और आज तक है । इस से प्रमाणित है कि भरत भारतीय सम्राटों की मौक्तिक माला में इन्द्रमणि थे । इसका एकमात्र कारण था कि यदि उनमें शारीरिक बल था तो आध्यात्मिक शक्ति भी थी । भरत दोनों के समन्वय स्थल पर मनिस्तभ की भांति खड़े थे । उन का मन-वचन-काया एक थे। उन्हों ने वात्सल्यता से प्रजा का पालन किया और उन्हें समुन्नति के शिखर पर पहुंचा दिया । उन्होंने इस से भी बड़ा काम यह किया कि सांसारिक व्यवहार-व्यापार करते हुए भी उन सब में अनासक्त रहे । यही कारण था कि उन्हें शीशमहल में अंगुली से अंगूठी गिरने पर अनित्य भावना में तल्लीन हो जाने के कारण गृहस्थ वेष में ही केवलज्ञान हो गया । वे राज्य भोगते हुए और सब प्रकार के सांसारिक सुख उपलब्ध रहने पर भी आसक्त नहीं थे । पश्चात् इन्द्र ने आकर उन्हें मुनिवेश दिया । इस बात की पुष्टि ब्राह्मणीय पुराण तथा जैनवाङ्मय से होती है । जिसके एकाद उदाहरण यहां दिये जाते हैं । भागवत पुराण में एक स्थान पर लिखा है कि Jain Education International आर्षभस्य राजर्षेर्मनसापि महात्मनः । नानुवर्त्वार्हति नृपो मक्षिकेव गरुडमनः ॥ यो दुस्त्यजान् दारसुतान् सुहृदराज्यं हृदिस्पृशः । जहो युदेव मलवदुत्तमश्लोक लालसः ॥ ( भागवत ५।१४।४२-४३ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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