SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतवर्ष में जैनधर्म ६५ अर्थात हे राजन् ! राजर्षि भरत के विषय में पंडित जन कहते हैं कि जैसे गरुड़ की बराबरी कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी तरह महात्मा भरत के मार्ग का अनुसरण कोई नहीं कर सकता। अर्थात् उन्होंने जिस तरह शासन किया वैसा अन्य कोई नहीं कर सकता। उन उत्तम श्लोक भरत ने दुस्त्यज स्त्रियां, पुत्र, मित्र, और राज्य की लालसानों को मलवत् त्याग दिया था। श्री वाग्देव्यै कुप्यति वाग्देवी द्वेष्टि सततं सक्षम्य । भरतमनुगम्य साम्प्रतमनयोरात्यान्तिक प्रेम ॥ (जैनाचार्य हेमचन्द्र कृत नि० श० ११२।६६०) अर्थात्--भरत के चारित्र ने लोगों के हृदयों में अलौकिक भावनाओं को जन्म दिया था। लोगों के मन में यह धारणा जम गई थी कि भरत के चरित्र को सुनने या सुनाने मात्र से कामनायें स्वतः पूर्ण हो जाती हैं। वे भरत को' साधारण जन नहीं मानते थे, अपितु अतिमानव तदनुरूप वे थे भी। आदितीर्थकृतो ज्येष्ठपुत्रो राजषु षोडसः । जयायाँशचक्री मुहूर्तेन मुक्तोयं कैस्तुला ब्रजेत ॥ ___ (दि० गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण ४७१४६ पृ०४४६) अर्थात्-यह भरत भगवान आदिनाथ का ज्येष्ठ पुत्रथा, सोलहवां मनु था, प्रथम चक्रवर्ती था और एक मुहूर्त में ही मुक्त हो गया था। इसलिए यह किसके साथ सादृश्य को प्राप्त हो सकता था ? किसी के साथ नहीं, यह तो सर्वथा अनुपम था। भरत विश्व के सर्वप्रथम चक्रवर्ती थे। उन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी को जीता था और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी के एकराट सम्राट बने । प्रजा की चिन्ता उनकी अपनी चिन्ता थी। उन्होंने अपने पितामह और पिता के समान ही वात्सल्यभावों से सब कुछ किया। वे महान् थे- वीर्यवान, धर्मज्ञ, सत्यवक्ता दृढ़व्रती, शास्त्र और शस्त्र विद्यानों के पारगामी, निग्रह और अनुग्रह के समर्थ तथा सर्व प्राणियों के हितैषी थे। वे वैभव सम्पन्न होते हुए भी वैरागी थे। उनका मन संसार से विरक्त था। अन्त में शीशमहल में गृहस्थ राजा के वेष में ही मूर्छा से विरक्त होते ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। उन्होंने एक साथ राग और विराग, भोग और योग, संसार और मोक्ष का जैसा प्रादर्श उपस्थित किया, फिर इस धरा पर कोई न कर सका । वे अद्वितीय थे। यही कारण है कि उन्हीं के नाम से इस देश का नाम आर्यखंड-हिमवत् प्रदेश के स्थान पर भारतवर्ष हुआ। भारतवर्ष में जैनधर्म भारतवर्ष में जैनधर्म का प्रादुर्भाव हुआ, फला और फूला। इसके प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर भारत में ही जन्मे और यहीं निर्वाण पाये। इसलिए सारे भारत में आदिनाथ (ऋषभ) के समय से लेकर आज तक इस का प्रचार और प्रसार रहा । इस देश में सर्वत्र जैन मंदिर, जैनतीर्थ तथा जैन स्मारक विद्यमान है । आज भी हजारों की संख्या में जैन श्रमण-श्रमणियां तथा लाखों की संख्या में जैन परिवार विद्यमान हैं। इसका विवरण देना इस ग्रंथ की सीमा से बाहर है क्योंकि पेशावर से लेकर दिल्ली की पंजाब, हरियाणा की सीमा तक तथा सिंध प्रदेश तक ही जैनधर्म के इतिहास पर प्रकाश डालने का इप्त ग्रन्थ का उद्देश्य है। 1. दिगम्बर भी मानते हैं कि भ रत को शीशमहल में ही म हूत मान में केवल ज्ञान हो गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy