SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म १-एक बार भोगने योग्य आहार आदि भोग कहलाते हैं । जिन्हें पुनः पुनः भोगा जा सके ऐसे वस्त्र, पात्र, मकान, पत्नी-पति आदि उपभोग कहलाते हैं । यानी-व्रत के पहले विभाग में विधान है कि भक्ष्य (मानव के खाने-पीने योग्य) भोजन पदार्थों तथा उपभोग की वस्तुओं की मर्यादा अथवा त्याग करना और अभक्ष्य (मानव के न खाने-पीने योग्य---मांस-मदिरा मादि) पदार्थों का सर्वथा त्याग करना । रात्रि भोजन का त्याग करना आदि। २-दूसरे विभाग में व्यापार सम्बन्धी मर्यादा कर लेने से पाप पूर्ण व्यवसाय का त्याग हो जाता है । यह सातवां व्रत-दूसरा गुणव्रत है। (८) अनर्थदंड विरमण व्रत-प्रयोजन विहीन कार्य करना या किसी को सताना अनर्थदंड कहलाता है। इस व्रत में ऐसे कार्यों का त्याग होता है। अनर्थदंड करने वाले विवेक शून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार के व्यर्थ पापों को उपार्जन करती है। १-अपध्यान ----अपन तथा दूसरों का बुरा विचारना । २-प्रमादाचरण-जाति कुल प्रादि का मद तथा विषय-कषाय करना, मद्य आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना, अति निद्रा, विकथा, निन्दा आदि करना । ३-हिस्र प्रदान-हिंसा के साधन-तलवार, बन्दूक, तोप, बम प्रादि का निर्माण करके, अथवा खरीद कर या अपने पास से दूसरों को देना, संहारक शस्त्रों का आविष्कार करना। . ४-पापोपदेश-पापजनक कार्यों का उपदेश देना। इस व्रत को अंगीकार करने वाले श्रावक-श्राविका उपर्युक्त सब कार्यों का त्याग करते हैं। काम-वासना-वर्धक वार्तालाप, हास्यपूर्ण अशिष्ट-प्रशलील वचन का प्रयोग नहीं करते । कामोत्तेजक शारीरिक कुचेष्टाएँ नहीं करते, असभ्य फूहड़ वचनों का प्रयोग नहीं करते, हिंसा जनक शस्त्रों का संयोजन, निर्माण, विक्रयादि की मर्यादा का अतिरेक नहीं करते और भाग भी नहीं लेते, भोगोपभोग के योग्य पदार्थों में अधिक प्रासक्त नहीं होते । यह गृहस्थ का पाठवां--- तीसरा गुणव्रत है। चार शिक्षाव्रत-(६) सामायिक, (१०) देशावकाशिक, (११) पौषधोपवास तथा (१२) अतिथि संविभाग। शिक्षाव्रतों से अणुव्रतों व गुणवतों में विशुद्धता, निर्मलता आती है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा है कि - साधु धर्माभ्यास: शिक्षा - अर्थात् जिससे श्रेष्ठ धर्म (नियमों) का योग्य अभ्यास हो वह शिक्षा कहलाती है । अतः इन सामायिक आदि चार शिक्षाव्रतों से अणुव्रतों, गुणव्रतों का योग्य अभ्यास होता है । जिससे व्रतों में पुष्टि, वृद्धि और शुद्धि का विकास होता रहता है। प्रतिदिन अभ्यास करने योग्य नियम शिक्षाव्रत कहलाते हैं । (6)-सामायिक व्रत-समता को प्राप्त करना। यह श्रावक-श्राविका का पहला शिक्षा व्रत है । श्रावक-श्राविका के लिए प्रतिदिन कम से कम दो घड़ी (४८ मिनट) तक मन, वाणी और शरीर से होने वाले पापकारी व्यापारों को त्याग करके समभाव में रहना सामायिक है। राग-द्वेष बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों का त्याग कर मोह माया के संकल्प--विकल्पों को हटाना सामायिक का मुख्य उद्देश्य है। सामायिक व्रत का स्वरूप-१-सब जीवों पर समता (समभाव), पांच इन्द्रियों पर नियंत्रण, हृदय में शुभ भावना रखना । आत-रौद्र दुानों का त्याग, धर्मध्यान, शुक्लध्यान का चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy