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________________ ६१ जैनधर्म का महत्व सामायिक व्रत है । २ - जीवित-मृत्यु, लाभ- प्रलाभ, संयोग-वियोग, मित्र - शत्रु, सुख-दुःख आदि में समता रखना सामायिक व्रत हैं । ३ - राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति को समता कहते हैं । राग-द्वेष का त्याग होने से समरसी भाव में अपने स्वरूप में लीन होना सामायिक है । सामायिक की शुद्धता ( सफलता ) - १ - जो साधक सभी जीवों पर समभाव रखता है उसी की सामायिक शुद्ध होती है जिसकी आत्मा संयम में, तप में, नियम में संलग्न हो जाती है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है । ३ - चाहे तिनका हो चाहे सोना हो, चाहे शत्रु हो चाहे मित्र हो, सर्वत्र अपने मन को राग-द्वेष की प्रासक्ति से रहित और शांत रखना तथा पाप रहित उचित धार्मिक प्रवृत्ति करना सामायिक है । क्योंकि समभाव हो तो सामायिक है । ऐसा केवली भगवान ने कहा है। सामायिक का महत्व -- सामायिक मोक्ष प्राप्ति का मूख्य अंग है । जब तक हृदय में समभाव का उदय नहीं होगा तब तक कदापि मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । अतः सामायिक में समभाव- समता मुख्य है । समता क्या है ? आत्म स्थिरता - श्रात्म भाव में रहना ही चरित्र है । श्रात्म भाव में स्थिर होने वाले चरित्र से ही मोक्ष मिलता है । मात्र इतना ही नहीं आत्म स्थिरता रूप चरित्र तो सिद्धों में भी होता है इससे स्पष्ट है कि सामायिक का कितना महत्व है । अतः प्रतिदिन सामायिक प्रवश्य करणीय है । यह गृहस्थ का नवां व्रत - पहला सामायिक शिक्षाव्रत है । १० -- देशावकाशिक व्रत - यह दूसरा शिक्षा व्रत है | छठे व्रत में जो दसों दिशाओं का परिमाण किया है वह आजीवन है । उसमें क्षेत्र बहुत अधिक रखा है । इतने क्षेत्र में रोज आने-जाने का काम तो पड़ता नहीं । इसलिए छठे व्रत में रखे हुए क्षेत्र में यथाशक्य एक दिन के लिए अथवा अधिक समय के लिए संक्षेप करना होता है । इसी प्रकार दूसरे व्रतों में भी रखी हुई छूट का कुछ समय के लिए संक्षेप करना इस व्रत का उद्देश्य है । यह गृहस्थ का दसवां व्रत है | पोषधोपवास व्रत - यह तीसरा शिक्षा व्रत है । आत्म जागृति की विशेष वृद्धि के लिए चार प्रहर (बारह घंटे) या आठ प्रहर (दिन-रात ) तक धर्म ध्यान में दृढ़ रहने का नियम लेकर सामायिक में रहना चाहिए। आत्म भाव को विशेष रूप से बढ़ाने के लिए उतने समय आहार त्याग रूप उपवास करना चाहिए। ब्रह्मचर्य पालना, घर आदि के व्यापार का त्याग करना, शरीर के ममत्व को हटाना, उसकी शोभा श्रुषा का त्याग करना, इसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं । इसमें श्रावक-श्राविका साधु वृत्ति का पालन करते हैं । यह गृहस्थ का ग्यारहवां व्रत है । १२ -- प्रतिथि संविभाग शिक्षाव्रत - यह चौथा शिक्षाव्रत है । देने तथा श्रावक-श्राविकाओं का श्रापत्ति तथा कष्टों से सहयोग देने का श्रावक-श्राविका को नियम लेना होता है । वाले ज्ञानी मानवों का पोषण हो जिससे उन की सेवा भक्ति भी अपनी आत्मा के कल्याण साधना में सक्ष्म बने रहें । यह गृहस्थ का बारहवां व्रत है । न्यायोजित लक्ष्मी में साधु जोवन व्यतीत करने वाले साधु-संतों को उनके योग्य आहार उद्धार करने के लिये तन, मन, धन से इस व्रत का उद्देश्य त्यागमार्ग में चलने द्वारा अपना भी उद्धार हो और वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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