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जैनधर्म का महत्व
७-कुप्य परिमाण–सोने-चांदी के सिवाए बाकी धातुओं के बरतनों का परिमाण करना ।
८ --द्विपद परिमाण---नौकर-चाकर, दास-दासी, वेतन पाने वाला गुमास्ता प्रादि रखने का परिमाण करना।
६- चतुष्पद परिमाण-गाय, भैंस आदि चौपाये पशु, मोटर-गाड़ी सवारी आदि का परिमाण करना।
परिग्रह से मोह कम करने के लिये, लोभ की वृत्तियों को काबू में लाने के लिए, असंतोष और इच्छाओं को अंकुश में लाने के लिये यह पाँचवाँ अणुव्रत है।
कहा भी है कि अपरिमित परिग्रह अनन्त तृषणा का कारण है, वह बहुत दोष युक्त है तथा नरक गति का मार्ग है।
अतः परिग्रह परिमाण व्रती गृहस्थ को क्षेत्र, मकान, सोना, चाँदी, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रम नहीं करना चाहिए ।
___ उसे संतोष रखना चाहिए, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि आगे आवश्यक होने पर पुनः बढ़ा लूंगा । यह गृहस्थ का पांचवां स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत है।
तीन गुणव्रत -
साधु के व्रत संपूर्ण रूप से होने से उन में तारतम्य नहीं है । इसलिए उन्हें महाव्रत कहा गया है । परन्तु श्रावक के व्रत अल्पांश होने से उन व्रतों की विविधता के कारण उनकी प्रतिज्ञा भी अनेक रूप से अलग-अलग की जाती हैं । ये पांच अणुव्रत मूलभूत अर्थात् त्याग के प्रथम पाया रूप होने से मूलगुण या मूलवत कहलाते हैं । इन मूल व्रतों की रक्षा, पुष्टि, वृद्धि किंवा शुद्धि के लिए गृहस्थ दूसरे भी कितने व्रत स्वीकारता है । जो उत्तर गुण या उत्तर व्रत के नाम से प्रसिद्ध हैं। ऐसे उत्तर व्रत सात हैं-तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाबत । श्रावक के तीन गुणवतों का स्वरूप इस प्रकार है-प्रथम जो पाँच अणुव्रत बतलाये हैं उन व्रतों को जो व्रत-गुण, पुष्टि, वृद्धि करें वे गुणव्रत कहलाते हैं । गुण का अर्थ है-पुष्टि-वृद्धि । ये तीन व्रत हैं-(६) दिग्परिमाण व्रत, (७) भोगोपभोग परिमाण व्रत, (८) अनर्थदंड विरमण व्रत ।
(६) दिग् परिमाण व्रत - दसों दिशाओं का परिमाण करना । ___ व्यापारादि क्षेत्र को परिमित करने के अभिप्राय से चारों दिशाएँ, चारों विदिशाएं, ऊपर, नीचे दसों दिशाओं में गमनागमन या सम्पर्क आदि की सीमा बांधना । अर्थात् निर्धारित सीमानों का उल्लंघन करके सावद्य कार्यों के न करने की प्रतिज्ञा गृहस्थ का छठा व्रत-दिग् परिमाण नामक प्रथम गुणव्रत है।
इस व्रत का उद्देश्य लोभ वृत्तियों पर अंकुश करना, धर्म की वृद्धि एवं पुष्टि करना, हिंसादि पापों को रोकना है।
(७) भोगोपभोग परिमाणवत
भोगोपभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है- १-भोजनादि रूप और २-कर्म या व्यापार रूप । १---कन्दमूल, अनन्तकायिक वनस्पति, २२ अभक्ष्य, पाँच उदुम्बर फल का त्याग या परिमाण तथा मद्य-मांसादि का सर्वथा त्याग करना-भोजनादि विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है। २-हिंसापरक आजीविका आदि का त्याग-व्यापार विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है।
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