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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म जहां पर जोड़ा न हो, केवल स्त्री या पुरुष कोई एक व्यक्ति कामराग के आवेश में आकर जड़ वस्तु के आलंबन से अथवा अपने हस्तादि अवयवों द्वारा मिथ्या प्राचार का सेवन करे ऐसी चेष्टा को भी मैथुन कहते हैं । क्योंकि मैथुन का असली भावार्थ तो कामराग जनित कोई भी चेष्टा ही है । यह अर्थ किसी एक व्यक्ति की ऐसी कुचेष्टानों में भी लागू हो सकता है। अतः इस में भी मैथुन दोष ही है। श्रावक के ब्रह्मचर्याणुव्रत का नाम-स्वदारा संतोष-परस्त्रीगमन विरमण व्रत है। अर्थात् विवाहित स्त्री-पुरुष, आपस में संतुष्ट रहें अपने विवाहित पति-पत्नी के अतिरिक्त परस्त्री, परपुरुष, वैश्या, विधवा, रखैल, कुवारा-कुवारी, देव-देवांगना, तियं च-तिर्यंची--प्रादि अन्य भी सब प्रकार के स्त्री-पुरुष; परस्त्री परपुरुष हैं । श्रावक-श्राविका उन सब का त्याग करे । स्वयं दूसरा विवाह करना, दूसरों का विवाह कराना इसे पर-विवाह करना कहते हैं । ऐसा करने से भी इस व्रत में दोष लगता है। तथा स्वदारा संतोष का आशय यह भी है कि अपनी स्त्री से भी मर्यादित रहे । यानि दिन में, पर्यों में, रजस्वला, रुग्न गर्भावस्था में पति-पत्नी मथुन का त्याग करें अन्य अवस्था और दिनों में बीच-बीच में प्रथवा जब तक बच्चा मां का दूध पीता हो तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें। अनंगक्रीड़ा-यानी कामांग के बिना ही अन्य किसी प्रकार से हस्तमैथुन, गुदामैथुन, पशु मैथुन, अप्राकृतिक मैथुन अथवा लिंग या योनि के सिवाय अन्य अंगों अथवा वस्तुओं द्वारा काम क्रीड़ा करना । इसका भी सर्वथा त्याग करना । गृहस्थ का यह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है । (५) स्थूल परिग्रह परिमाणवत पांचवां व्रत है-वासना- इच्छात्रों को सीमित करना, संग्रह वृत्ति को अंकुश में लाना । इस व्रत का नाम "परिग्रह परिमाण व्रत" है । मूर्छा-अासक्ति को परिग्रह कहा है । वस्तु छोटी बड़ी, जड़-चेतन, बाह्य-प्रांतरिक चाहे जो भी हो उस में बन्ध जाना या तो उसकी लगन में ही विवेक खो बैठना-यही परिग्रह है । गृहस्थ को अपनी ज़रूरत से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उन्हें प्राप्त करने, रक्षण करने के लिये अनेक प्रकार के क्लेश करना अथवा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये दूसरे प्राणियों को कष्ट देकर धनादि का संचय करना- इस प्रकार के पाप परिग्रह से बचना चाहिए इस पाप से बचने के लिये अपनी ज़रूरत के माफ़िक ही वस्तुएँ रखने का नियम करे। यह व्रत नौ प्रकार का है। १-धन परिमाण-—यह चार प्रकार का है । (१) जो गिना जाए-रुपया प्रादि । (२) जो तोला जाय-गुड़ आदि; (३) सोना-चांदी-जवाहरात जो परिक्षा करके लिया जावे, (४) जो नापकर खरीदा बेचा जाए---कपड़ा, दूधादि; इन सब का परिमाण करना। २--धान्य परिमाण-चावल, गेहूँ प्रादि सब प्रकार का अनाज, मसाले, औषधी, सागसब्जियाँ आदि का परिमाण करना । ३-क्षेत्र परिमाण-खेत, बगीचा, भूमि आदि का परिमाण करना । ४-वास्तु परिमाण - मकान, दुकान, मार्कीट, हवेली आदि का परिमाण करना। ५-रुप्य परिमाण-- सिक्के बिना की चांदी उसके तोल का परिमाण करना। ६-स्वर्ण परिमाण-सिक्के बिना का सोना इसके तोल का परिमाण करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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