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जैनधर्म का महत्व
५- सहसाभ्याख्यान – किसी को असत् दोष कलंक देना
उपर्युक्त पाँचों प्रकार के दोषों का समावेश मिथ्या भाषण अथवा गर्हित असत्य में हो जाता है | अतः इस व्रत में उपर्युक्त पाँचों दोषों से श्रावक-श्राविका को बचना चाहिए । यह श्रावक-श्राविका का दूसरा स्थूलमृषावाद विमरण व्रत है ।
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(३) अचौर्याणुव्रत
तीसरा व्रत है— स्थूल श्रदत्तादान विरमण व्रत - अर्थात् स्थूल चोरी का त्याग |
यहाँ पर अदत्तादान शब्द का प्रयोग हुआ है । अ + दत्त + प्रदान इन तीन शब्दों के मेल से यह शब्द बना है । अ-अर्थात् नहीं; दत्त-प्रर्थात् दिया हुआ; आदान-प्रर्थात् लेना । यानी वस्तु के मालिक द्वारा न दिया हुआ लेना चोरी है । हर लेने की बुद्धि से दूसरे की वस्तु को लेने को चोरी कहते हैं । गृहस्थ को स्थूल चोरी अवश्य छोड़नी चाहिये ।
किसी को लूटना, सेंध लगाना, ताला तोड़ना, जेब काटना, कम देना, अधिक लेना, मार्ग में किसी अन्य की पड़ी वस्तु को पास रख लेने की नियत से उठा लेना, चोरी का माल लेना, चोर की मदद करना, चोरी करने का तरीका बताना, चोरी करने की अनुमति देना, बढ़िया वस्तु दिखलाकर घटिया वस्तु देना, वस्तु में मिलावट करना, नकली वस्तु को असली करके देना, अपने राजा अथवा राष्ट्र के प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र में राज्य की सीमा का उलंघन करके प्रवेश करना इत्यादि चोरी है | श्रावक-श्राविका को इसका त्याग करना चाहिये ।
"चोरश्चोरापको मंत्री भेवज्ञः काणक - क्रयी । अन्नदः स्थानदश्चैव, चौर: सप्तविधः स्मृतः । । "
श्रर्थात् — चोर, चोरी कराने वाला, चोरी की व्यवस्था करने वाला, चोर के भेद को जान कर छिपाने वाला अथवा उसका सहयोग करने वाला, चोरी की वस्तु खरीदने अथवा बेचने वाला, चोर को अन्न अथवा द्रव्य आदि देने वाला, स्थान निश्चय करने वाला - ये सात प्रकार के चोर कहे गये हैं । अतः ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये जिससे चोर कहलावे ।
घर की चोरी -घर की सब वस्तुनों के मालिक माता-पिता होते हैं । उनको पूछे बिना अथवा उनकी इच्छा के बिना लेना भी चोरी है । उधार लेकर मुकर जाना अथवा वापिस न लौटाना भी चोरी है । बन्धु, रिश्तेदार, सम्बन्धी के घर में आने-जाने का और खाने-पीने का व्यव - हार हो यदि उसका दिल दुःखे तो बिना पूछे कोई वस्तु लेना चोरी है | श्रावक-श्राविका इसका भी त्याग करे | यह श्रावक-श्राविका का तीसरा स्थूल प्रदत्तादान विरमण व्रत है ।
(४) ब्रह्मचर्याणुव्रत -
मैथुन के त्याग को ब्रह्मचर्यं कहते हैं । और मैथुन प्रवृत्ति ब्रह्म है । मैथुन का अर्थ है मिथुन की प्रवृत्ति | 'मिथुन' शब्द रु. मान्य रूप से 'स्त्री-पुरुष का जोड़ा' इस अर्थ में प्रसिद्ध है । फिर भी इसका अर्थ जरा विस्तृत करने की ज़रूरत है । जोड़ा अर्थात् स्त्री-पुरुष का, पुरुष पुरुष का, या स्त्री स्त्री का अथवा नपुंसक पुरुष का हो सकता है । और वह भी सजातीय मनुष्यादि एक जाति का अथवा विजातीय मनुष्य, देवता, पशु आदि भिन्न-भिन्न जाति का समझना चाहिए । ऐसे जोड़े की काम राग के आवेश से उत्पन्न मानसिक, वाचिक, किंवा कायिका कोई भी प्रवृत्ति यह मैथुन अर्थात् ब्रह्म कहलाता है ।
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