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________________ जैनधर्म का महत्त्व ७६ अनात्मा के स्वरूप को समझ लिया है जो भोग को रोग और इन्द्रियों के विषयों को विष समझ चका है तथा जिसके मानस-सर में वैराग्य की उमियां लहराने लगी हैं वही त्यागी निग्रंथ बनने के योग्य है । पूर्ण विरक्त होकर शरीर सम्बन्धी ममत्व का भी त्याग करके जो आत्म-आराधना में संलग्न रहना चाहता है वह मुनिधर्म अर्थात् जैन दीक्षा ग्रहण करता है । उसे घर-बार, धन-दौलत, स्त्री-परिवार, माता-पिता, खेत-जमीन आदि पदार्थों का सर्वथा त्याग करना पड़ता है। सच्चा श्रमण वही है जो अपने आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है, वह अपनी पीड़ा को वरदान मानकर तटस्थ भाव से सहन कर जाता है,मगर पर-पीड़ा उसके लिए असह्य होती है । जैन साधु वह नौका है जो स्वयं तैरती है तथा दूसरों को भी तारती है। भगवान् महावीर कहते हैं - साधुनो ! श्रमण निग्रंथों के लिए लाघव कम से कम साधनों से निर्वाह करना, निरीहता -- निष्काम वृत्ति, अमुर्छा- अनासक्ति, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता, शान्ति, नम्रता, सरलता निर्लोभता ही प्रशस्त है। जैन भिक्ष के लिए पांच महाव्रत अनिवार्य हैं । उन्हें रात्रि भोजन का भी सर्वथा त्याग होता है । इन महाव्रतों का भलीभांति पालन किए बिना कोई साधु नहीं कहला सकता । महाव्रत इस प्रकार हैं :--- "पाणिवह–मुसावाया-अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरओ। राइभोयण विरओ, जीवो भवइ अणासवो ।" १. अहिंसा महावत--जीवन पर्यन्त त्रस (हलन-चलन की सामर्थ्य वाले) और स्थावर (एक स्थान पर स्थिर रहने वाले) सभी जीवों की मन, वचन काया से हिंसा न करना, दूसरों से न कराना, और हिंसा करने वाले को अनुमोदन न देना ---अहिंसा महाव्रत है। साधु प्राणिमात्र पर करुणा की दृष्टि रखता है। अतएव वह निर्जीव हुए अचित्त जल का ही सेवन करता है । अग्नि काय के जीवों की हिंसा से बचने के लिए अग्नि का उपयोग नहीं करता पंखा आदि हिलाकर वायु की उदीरना नहीं करता। पृथ्वी काय के जीवों की रक्षा के लिए जमीन खोदने आदि की क्रियाएँ नहीं करता। वह अचित्त-जीवरहित आहार को ही ग्रहण करता है। मांसाहार सर्वदा सजीव होने से उसका सर्वथा त्यागी होता है। महाव्रतधारी जैन साधु स्थावर और चलते फिरते त्रस जीवों की हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है । जैन मुनि रात्रि भोजन का भी त्यागी होता है, क्योंकि रात्रि भोजन में प्रासक्ति और राग की तीव्रता होती है तथा जीव जन्तु आदि के गिर जाने से हिंसा एवं मांसाहार के दोष का लगना भी संभव है। श्रमण भगवान् महावीर फरमाते है कि : सूर्य के उदय से पहले तथा सूर्य के अस्त हो जाने के बाद निग्रंथ मुनिको सभी प्रकार के भोजन पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि संसार में बहुत से त्रस जीव (चलने फिरने, उड़ते वाले) और स्थावर (एक स्थान पर रहने वाले) प्राणी बड़े ही सूक्ष्म होते हैं। __ जमीन पर कहीं पानी पड़ा होता है, कहीं बीज बिखरे होते हैं और कहीं पर सूक्ष्म कीड़े मकौड़े आदि जीव होते हैं । दिन में उन्हें देखभाल कर बचाया जा सकता है, परन्तु रात्रि को उन्हें बचाकर भोजन करना संभव नहीं है । रात्रि को भोजन आदि में त्रस जीवों का पड़ जाना प्रायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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