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________________ ८० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म संभव होने से हिंसा एवं मांसाहार के दोष से प्रायः बचा नहीं जा सकता। इस प्रकार सब दोषों को देखकर ही ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने कहा है कि "निग्रंथ मुनि रात्रि को किसी भी प्रकार से भोजन न करे।" अन्नादि चारों ही प्रकार के प्राहार (१. अशन-वह खुराक जिससे भूख मिटे, २. पान-वह आहार जिससे प्यास आदि मिटे, ३. खाद्य-यह आहार जिससे थोड़ी तृप्ति हो, जैसे कलादि, ४. स्वाद्य---- इलायची सुपारी आदि) का रात्रि में सेवन नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं दूसरे दिन के लिए भी रात्रि में खाद्य सामग्री का संग्रह करना निषिद्ध है । अतः अहिंसा महाव्रतधारी श्रमण रात्रिभोजन का सर्वथा त्यागी होता है। २. सत्य महाव्रत-मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना, और काय से सत्य का आचरण करना तथा सूक्ष्म असत्य का भी प्रयोग न करना, सत्य महाव्रत है। जैन साधु मन वचन तथा काया से कदापि असत्य का सेवन नहीं करता। उसे मौन रहना प्रियकर प्रतीत होता है, फिर भी प्रयोजन होने पर परिमित, हितकर, मधुर और निर्दोष भाषा का ही प्रयोग करता है । वह बिना सोचे विचारे नहीं वोलता। हिंसा को उत्तेजन देने वाला वचन मुख से नहीं निकालता । हँसी, मजाक आदि बातों से, जिनके कारण असत्य भाषण की संभावना रहती है, उससे दूर रहता है। २. अचौर्य महाव्रत-मुनि संसार की कोई भी वस्तु, उसके स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण नहीं करता, चाहे वह शिष्यादि हो, चाहे निर्जीव घासादि हो । दांत साफ करने के लिए तिनका जैसी तुच्छ वस्तु भी मालिक की आज्ञा बिना नहीं लेता। ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत----जैन मुनि काम वृत्ति और वासना का नियमन करके पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है । इस दुर्धर महाव्रत का पालन करने के लिए अनेक नियमों का कठोरता से उसे पालन करना पड़ता है । उन में से कुछ इस प्रकार हैं--- (क) जिस मकान में स्त्री, पशु, नपुंसक का निवास हो उसमें न रहना। (ख) स्त्री अथवा पुरुष के हाव-भाव विलास आदि का वर्णन न करना । (ग) स्त्री-पुरुष का एक आसन पर न बैठना। (घ) स्त्री अथवा पुरुष के अंगोपाँगों को राग दृष्टि से न देखना। (ङ) स्त्री पुरुषों के कामुकता पूर्ण शब्द न सुनना और न बोलना। (च) अपने गृहस्थावस्था के पूर्वकालीन भोगमय जीवन को भुला देना और ऐसा अनुभव करना कि शुद्ध साधक के रूप में मेरा नया जन्म हुआ है। (छ) सरस, पौष्टिक, विकारजनक, राजस और तामस आहार न करना। (ज) मर्यादा से अधिक प्राहार नहीं करना । अधिक से अधिक बत्तीस छोटे कौर(कवल) भोजन करना। (झ) स्नान, मंजन, शृंगार आदि करके आकर्षक रूप न बनाना। 1. ब्रह्मचर्य पालन के इन नौ नियमों में साधु के लिए जहां स्त्री के लिए उल्लेख किया है। वहां साध्वी के लिए पुरुष का त्याग समझें । ब्रह्मचर्य पालन के लिए इन नौ नियमों का नौ बाड़ों के नाम से जैन शास्त्रों में वर्णन है। 2. साध्वी २८ कौर से अधिक भोजन न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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