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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ase meat from a butcher. A Jain on the other hand is bound to be a strict Vegetarian.”
अर्थात्-बुद्धधर्म केवल पशु के जीवन की रक्षा का ही उपदेश देता है जैनधर्म ने केवल उपदेश ही नहीं दिया परन्तु उपदेश के साथ आचरण में भी उतारा है। एक बौद्ध किसी पशु का स्वयं वध अथवा हिंसा चाहे न करे परन्तु उसे निःसंकोच कसाई की दुकान से मांस खरीदने की आज्ञा है । दूसरी ओर एक जैन निश्चयरूपेण दृढ़ शाकाहारी है।
मांस भक्षण से मात्र जैन ही अलिप्त रहे हैं प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० तिरुकुरल" पुस्तक पृ० ३०-३१ में लिखते हैं कि :
जिन मांस भक्षण, मदिरापान तथा व्यभिचार को जैनों ने निन्द्य मान कर त्याग किया था, उन्हें कापालिकों ने श्रद्धा से मूल सिद्धान्त रूप से स्वीकार किया था। यानी उन्होंने मांसाहार, मदिरापान तथा व्यभिचार सेवन को धर्म रूप स्वीकार किया था।
बौद्धों ने वेदों को तो प्रामाणिक नहीं माना किन्तु माँस भक्षण का त्याग नहीं किया। बौद्ध गृहस्थ अहिंसा के सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी मांसाहारी थे और हैं । वे अहिंसा को इस रूप से मानते थे कि पशुत्रों की स्वयं हत्या न करना। परन्तु उन्हें कसाई के वहां से ऐसा मांस खरीदने में कोई आपत्ति नहीं थी, जिसे उन्होंने स्वयं न मारा हो ; बौद्ध ग्रन्थों से हम ऐसा जान सकते हैं। जब तथागत गौतम बुद्ध स्वयं विद्यमान थे तब भी यह प्रथा प्रचलित थी। जब बौद्ध भिक्ष इस प्रकार (बे रोक-टोक) माँसाहार करते थे तब वौद्ध गृहस्थों को भी मांसभक्षण का कोई प्रतिबन्ध नहीं था । यदि बौद्धों से जैनों की कोई मौलिक विशेषता खोजने जावें तो हमें यह निःसंदेह कहना पड़ेगा कि जैन कट्टर शाकाहारी हैं।
हम वैदिक धर्मानुयायी मन, बोधायन तथा उनके बाद के वैदिक सिद्धान्त निर्माताओं के धर्मशास्त्रों में से नीचे लिखे विचार पाते हैं :
मधुपर्क में बोधायन ने २५ या २६ ऐसे पशुओं की सूची दी है, जो कि (मांसाहार के लिए) वध करने योग्य हैं।
वैदिक धर्मशास्त्रों में एक और विशेष बात यह भी पायी जाती है कि उन्होंने खेती-बाड़ी को एक निकृष्ट कार्य मानकर उसे चौथे वर्ण यानी शूद्रों के करने के योग्य बतलाया है। द्विजों ने खेती-बाड़ी के धन्धे को स्वीकार करना अपनी हीनता माना है। मात्र इतना ही नहीं परन्तु ऊंचे वर्णों के धर्म प्रचारकों ने तो हल छूने तक का विचार मात्र करना भी नितान्त अनुचित माना है।
सारांश यह है कि वैदिक धर्मानूयायी मांसभक्षण को उत्तम मानते थे तथा खेती-बाड़ी को निकृष्ट । जैनों ने मांस भक्षण को एकदम त्याज्य माना और खेती बाड़ी को जैन श्रमणोपासकों (श्रावकों) के लिए त्याज्य नहीं माना। उपासकदशांग जैनागम में भगवान् महावीर के जिन दस श्रावकों का चरित्रचित्रण किया गया है, उनका मुख्य व्यवसाय प्रायः खेती-बाड़ी ही था।
निर्ग्रन्थ श्रमण (जैन साधु-साध्वी) का प्राचार जैनागमों में त्यागमय जीवन अङ्गीकार करनेवाले व्यक्ति की योग्यता का विस्तृत वर्णन किया है । प्रायु का कोई प्रतिबन्ध न होने पर भी जिसे शुभ तत्त्व-दृष्टि प्राप्त हो चुकी है, जिसने आत्मा
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