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विश्व शान्ति और अहिंसा सामना-पक्ष:-एकांगी अथवा निरपेक्ष दृष्टिकोण को बदलने के लिए अभ्यास आवश्यक है। परिवर्तन केवल जानने मात्र से नहीं होता। उसके लिए दीर्घकालीन अभ्यास अपेक्षित है। सर्वांगीण और सापेक्ष दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए सापेवता की अनुप्रेक्षा अपेक्षित है।
समन्वय
दार्शनिक-पक्ष:-कोई भी विचार समम सत्य नहीं होता। वह सत्यांश होता है। जैसे अपने विचार को सत्य मानते हो वैसे ही दूसरे के विचार में भी सत्य की खोज करो। अपने विचार को सत्य ही मानना और दूसरे के विचारों को असत्य ही मानना एकांगी आग्रह है। यह एकांगी आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है। सत्य की खोज का मार्ग है अनाग्रह । अनाग्रही मनुष्य दो भिन्न विचारों में समन्वय साध सकता है।
व्यवहार-पक्ष:-आग्रही मनोवृत्ति सांप्रदायिक उत्तेजना के लिए उत्तरदायी है। एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय द्वारा सम्मत सत्यांश को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। आचार्य विनोबा ने लिखा:-"मैं कबूल करता हूं कि मुझ पर गीता का गहरा असर है। उस गीता को छोड़कर महावीर से बढ़कर किसी का असर मेरे चित्त पर नहीं है । उसका कारण यह है कि महावीर ने जो आज्ञा दी है,वह बाबा को पूर्ण मान्य है। आज्ञा यह है कि सत्यग्राही बनो। आज जहां-जहां जो उठा सो सत्याग्रही होता है। बाबा को भी व्यक्तिगत सत्याग्रही के नाते गांधीजी ने पेश किया था लेकिन बाबा जानता था वह कौन है ? वह सत्याग्रही नहीं,सत्यपाही है। हर मानव के पास सत्य अंश होता है इसलिए मानव-जन्म सार्थक होता है। तो सब धर्मों में,सब पन्थों में,सब मानवों में सत्य का जो अंश है,उसको ग्रहण करना चाहिए। हमको सत्यपाही बनना चाहिए, यह जो शिक्षा है महावीर की,बाबा पर गीता के बाद उसी का असर है।" ।
साधना-पक्ष :-रैप्टेलियन मस्तिष्क से प्रभावित व्यक्ति सांप्रदायिक और जातीय घृणा फैलाने में तत्पर रहता है। साधना के द्वारा उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है । समन्वय की चेतना के विकास के लिए समन्वय की अनुप्रेक्षा बहुत उपयोगी
द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में आचार्य श्री महाप्रज्ञ का विशेष वक्तव्य ।
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