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अहिंसा के प्रशिक्षण की आधारभूमि सामूहिक स्वामित्व और राज्य का स्वामित्व-दोनों आर्थिक विकास की दौड़ में पिछड़ गए हैं। यह इस दशक में घटित यूरोप और एशिया की घटनाओं से प्रमाणित हुआ है। सहकारिता की स्थिति भी लगभग यही है। इनका कारण स्पष्ट है-व्यक्तिगत स्वामित्व में अधिकार की भावना प्रबल होती है। सामूहिक स्वामित्व, राज्यगत स्वामित्व और सहकारिता में वह दुर्बल बन जाती है। इसका निष्कर्ष यह है कि परिग्रह
और हिंसा-दोनों में गठबंधन है। जहां अधिकार की भावना है वहां अर्थ-संग्रह के प्रति अधिक आकर्षण है। जहां अर्थ-संग्रह के प्रति अधिक आकर्षण है वहां हिंसा के प्रति अधिक आकर्षण है।
अहिंसा-प्रशिक्षण : प्रथम बिन्दु
अहिंसा का प्रशिक्षण कहां से प्रारम्भ करें? इस प्रश्न का उत्तर उक्त समस्या का सहज समाधान है। अहिंसा का प्रारम्भ बिन्दु है-अभय । “भय मत करो” इसे हजार बार पढ़ने वाला व्यक्ति भी भयमुक्त नहीं होगा यदि उसका शरीर के प्रति मोह है,धन
और पदार्थ के प्रति मूर्छा है। भय का कारक तत्त्व भीतर रहे और बाहर से अभय का पाठ पढ़े तो लक्ष्य पूर्ण नहीं होता। भय के संवेग का परिष्कार कैसे हो? भय के उद्दीपन से कैसे बचा जाए ? इन दोनों का सम्यक् बोध और प्रयोग ही अभय का प्रशिक्षण हो सकता है। इस अवस्था में ही अभय अहिंसा के प्रशिक्षण का प्रथम बिन्दु बन सकता
अहिंसा का बीज ___अधिकार की भावना, संग्रह और भय-ये सब एक ही परिवार के सदस्य हैं। इनसे मुक्ति पाने की बात सहज संभव नहीं है । इनका परिष्कार करना संभव है । उस परिष्कार में ही छिपा रहता है, अहिंसा का बीज । परिष्कार के साधनों की खोज एक जटिल प्रश्न है । चूल्हे पर चढ़ा हुआ पानी गर्म हो जाता है। नीचे उतरा और फिर ठंडा हो जाता है । परिष्कार की ज्योति प्रज्वलित रहे,वह बुझे नहीं । यह कार्य सरल नहीं है, साथ-साथ विश्वास करना होगा, यह असंभव भी नहीं है।
पहला साधन-सूत्र
हिंसा उपजती है भावतंत्र में । फिर वह विचार में उतरती है और फिर आचरण
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