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________________ विश्व शान्ति और अहिंसा है-अनेकांतवाद । उसके अनुसार तीसरी जाति निदोष होती है। दर्शन के क्षेत्र में नित्यवाद की अवधारणा मान्य है। अनित्यवाद भी सम्मत है। अनेकांत के अनुसार ये दोनों निर्दोष नहीं है। इन दोनों का समन्वय कर नित्यानित्यवाद बनता है। वह निर्दोष है । ठीक इसी प्रकार समाजवादी अर्थव्यवस्था का सूत्र-व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा और लोकतंत्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता-इन दोनों का योग कर समाज-व्यक्तिवादी प्रणाली का विकास किया जाए तो विश्व शांति की समस्या को स्थाई समाधान दिया जा सकता है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार “टॉयनबी” ने रोटी और आस्था के प्रश्न को विश्व के सम्मुख रखा था। रोटी को छोड़कर आस्था और आस्था को छोड़कर रोटी पाने की प्रवृत्ति निर्दोष नहीं हो सकती। जिस प्रणाली में रोटी और आस्था दोनों का समीचीन योग हो,वही प्रणाली विश्व शांति के लिए प्रशस्त हो सकती सह-अस्तित्व हम एक पृथ्वी पर जी रहे हैं, एक ही सौरमडंल के प्रभाव क्षेत्र में श्वास ले रहे हैं। अन्तर्नक्षत्रीय विकिरण हम सब को प्रभावित कर रहा है। हम सबको अनुकूल वातावरण और पर्यावरण की अपेक्षा रहती है। इस प्राकृतिक स्थिति ने सह-अस्तित्व की धारणा को जन्म दिया है। हमें एक साथ जीना है,एक साथ रहना है । यह हमारी प्रकृति है। इस प्रकृति में कुछ अवरोध भी हैं । प्राकृतिक और भौगोलिक अवरोध कम हैं,कृत्रिम या काल्पनिक अवरोध अधिक हैं । हमने बहुत सारी मान्यताएं और धारणाएं बना ली हैं। उनकी चादर को ओढ़कर हम घूम रहे हैं। इसलिए वास्तविकता के साथ हमारा सीधा संपर्क नहीं होता । चादर को ओढ़नी में ढकी हुई आंखें जो देखती हैं वही हमारे लिए सच्चाई बनी हुई है । इस चादर से छनकर जो श्वास आ रहा है, वही हमारे लिए शुद्ध प्राणवायु है। खुली आंख से देखने और खुले नाक से सांस लेने का अवसर कम मिलता है, या नहीं मिलता। इसीलिए मनुष्य-मनुष्य के बीच बहुत बड़ी दीवारें खड़ी हैं। वे एक-दूसरे को देख ही नहीं पा रही हैं। साक्षात्कार के बिना एक-दूसरे को समझने का अवसर ही कहां आता है ? जाति-भेद, रंग-भेद और संप्रदाय-भेद-यह भेद की त्रिपदी हैं । इस त्रिपदी ने मनुष्य को बांट दिया और इतना बांट दिया कि उसके सामने शत्रुता का दर्शन जितना स्पष्ट है. मैत्री का दर्शन उतना स्पष्ट नहीं है। इस शत्रुता के दर्शन ने प्राकृतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003163
Book TitleVishwashanti aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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