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विश्व शांति और अहिंसा व्यवस्था और परिस्थति से जुड़ी हुई है। आर्थिक व्यवस्था और परिस्थिति अच्छी है, तो व्यक्ति अच्छा होगा, यह मान लिया गया है। इसमें निमित्त को सब कुछ मान लिया गया है। व्यक्ति की अपनी योग्यता की उपेक्षा की गई है। अच्छाई और बुराई का उपादान या मूल कारण है-व्यक्ति की अपनी योग्यता और उसका निमित्त कारण है-आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक परिस्थिति । व्यक्ति के संदर्भ में इस सिद्धांत की आलोचना करें तो यह तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता ।
जैसा व्यक्ति,वैसा समाज--इस सिद्धांत में मूल कारण को सब कुछ मान लिया गया और निमित्त कारण की उपेक्षा की गई इसलिए यह भी परिपूर्ण नहीं है । मूल में शक्ति होती है, पर निमित्त का योग मिले बिना उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। समग्रता की दृष्टि से विचार करें तो यह सूत्र बनेगा-व्यक्ति, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था । इन तीनों में सापेक्ष और संतुलित परिवर्तन हो तभी स्वस्थ समाज या अहिंसक समाज की परिकल्पना की जा सकती है।
सोवियत रूस, चीन आदि देशों में आर्थिक व्यवस्था और समाज व्यवस्था के परिवर्तन पर बहुत भार दिया गया । फलस्वरूप वहां व्यवस्थाएं बदल गईं, फिर भी व्यक्ति नहीं बदला । व्यक्ति आज भी वैसा ही है। नियंत्रण की स्थिति में भी आर्थिक और सामाजिक अपराध हो रहे हैं । यदि नियंत्रण को ढीला कर दिया जाए तो अपराध वृद्धि हो सकती हैं। कोरा व्यवस्था परिवर्तन पर्याप्त नहीं हैं। इसे समाजवादी या साम्यवादी जीवन-प्रणाली के संदर्भ में देखा जा सकता है।
ब्रिटेन, अमरीका, हिन्दुस्तान आदि देशों में लोकतंत्रीय प्रणाली चल रही है। उसमें व्यक्ति को वाणी,लेखन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। किन्तु व्यक्ति की उपेक्षा नहीं की गई है,हर व्यक्ति को अपनी योग्यता के विकास का समान अवसर दिया गया है पर आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण नहीं है। इसलिए लोकतंत्रीय प्रणाली में एक व्यक्ति अरबपति बन सकता है और दूसरा रोटी के लिए तरसता रह जाता है। जीवन-निर्वाह के साधनों की उपलब्धि की अनिवार्य व्यवस्था नहीं है। व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई सीमा नहीं है।
हमारे विश्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दोनों (लोकतंत्रीय और साम्यवादी) प्रणालियों में हिंसा के बीज निहित हैं। अब विश्व शांति के लिए एक तीसरी प्रणाली के विकास की आवश्यकता है। जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत
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