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________________ विश्व शांति और अहिंसा - गणाधिपति तुलसी समाज में अनेक लोग होते हैं। वे परस्पर एक सूत्र से बंधे हुए होते हैं। वह सूत्र है-परस्परता। अनेक होना समूह है। केवल समूह समाज नहीं बनता। समाज परस्परता के सूत्र से बंधकर ही बनता है । एक धागे में पिरोए हुए मनके माला का रूप लेते हैं । उस धागे का मूल्याकंन करना सबसे अधिक आवश्यक है। भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी मनाई गई। उस अवसर पर एक जैन प्रतीक प्रस्तुत किया गया। उसकी आधार-भित्ति में एक सूत्र अंकित है-“परस्परोपग्रहो जीवानाम्।” यह जैन परम्परा के प्रथम संस्कृत ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इसका अर्थ है-जीवों में परस्पर उपग्रह-अनुग्रह अथवा उपकार का संबंध है । उद्योगपति अपने मजदूर को वेतन देता है और मजदूर उद्योगपति के हित का साधन करता है तथा अहित का निवारण करता है-यह है परस्पर-उपग्रह। आचार्य अपने शिष्य को ज्ञान देता और उससे अनुष्ठान कराता है । शिष्य आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति करता है, उनके निर्देश को शिरोधार्य करता है । यह है परस्पर-उपग्रह । हमारे जीवन का सूत्र संघर्ष नहीं है । संघर्ष एक विवशता है। वह स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है। परस्पर-उपग्रह यह उसकी स्वतंत्र प्रवृत्ति है । संघर्ष जीवन है-यह सूत्र मनुष्य को हिंसा की ओर उन्मुख करता है। परस्पर-उपग्रह की धारणा उसे अहिंसा की ओर ले जाती है। हम सामाजिक जीवन जी रहे हैं। समाज का घटक है,व्यक्ति । जैसा व्यक्ति होता है, वैसा समाज होता है। जैसा समाज होता है, वैसा व्यक्ति होता है। इन दोनों विकल्पों में सच्चाई हैं, किन्तु सापेक्ष। वर्तमान में समाज की अवधारणा आर्थिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003163
Book TitleVishwashanti aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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