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विश्व शांति और अहिंसा
सह-अस्तित्व को विकृति जैसा बना दिया। आज विश्व- मैत्री या विश्व शाति के सिद्धान्त को समझाने के लिए बहुत प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। शत्रुता और अशांति को समझाने की कोई जरूरत नहीं है ।
एक व्यक्ति हिन्दुस्तान का नागरिक है, दूसरा पाकिस्तान का । यह राष्ट्रीयता का भेद उन्हें बांटे हुए है। हिन्दुस्तान के व्यक्ति में हिन्दुस्तान की भूमि के प्रति जितना लगाव होता है, उतना पाकिस्तानी मनुष्य के प्रति लगाव नहीं है। वास्तव में मनुष्य मनुष्य के अधिक निकट होता है। व्यवहार इससे भिन्न है। व्यवहार की सीमा में पदार्थ के प्रति जितना लगाव है उतना मनुष्य के प्रति नहीं है। जाति, रंग और संप्रदाय की धारणा के प्रति जितना लगाव है उतना मनुष्य के प्रति नहीं है । वास्तविक सत्य और व्यवहार की दूरी सचमुच एक जटिल समस्या है।
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दर्शन शास्त्र में तीन प्रकार के विरोध निर्दिष्ट हैं- प्रतिबध्य - प्रतिबंधक बध्य-बंधक और सहानवस्थान । बल्ब प्रकाश की रश्मियों को बिखेर रहा था, इतने में किसी ने स्विच ऑफ कर दिया। प्रकाश अंधकार में बदल गया । यह प्रतिबध्य प्रतिबंधक जाति का विरोध है। सांप और नेवले में बध्य-बंधक जाति का विरोध है । पानी और आग एक साथ नहीं रह सकते इसिलिए उनमें सहानवस्थान जाति का विरोध है ।
भेद और विरोध की स्थिति में हम सह-अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते । जैन- दर्शन ने इस समस्या का समाधान खोजा। उस समाधान की भित्ति पर अहिंसा की प्रतिष्ठा की गई । अनेकान्त में विरोध के परिहार का एक प्रशस्त दृष्टिकोण है । उसका एक सूत्र है - इस विश्व में सर्वथा विरोध और सर्वथा अविरोध जैसा कुछ भी नहीं है। सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद - ये सत्य नहीं है। जहां विरोध अभिव्यक्त है, वहां अविरोध उसके नीचे छिपा हुआ है। इसी प्रकार भेद के नीचे अभेद और अभेद के नीचे भेद तिरोहित रहता है। हम केवल भेद और विरोध को देखते हैं तो हिंसा को बल मिलता है। केवल अभेद और अविरोध को देखते हैं, तो हमारी उपयोगिता की धारणा टूटती है । व्यवहार ठीक से नहीं चलता, इसलिए भेद और अभेद तथा विरोध और अविरोध में सापेक्षता का अनुभव करना, उनमें सामंजस्य स्थापित करना, हिंसा की समस्या का समाधान है। इसी आधार पर सह-अस्तित्व के सिद्धांत की क्रियान्विति की जा सकती है
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