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विश्व शान्ति और अहिंसा घृणा को जन्म लेने का मौका ही न मिले । इतिहास साक्षी है कि समाज की धरती पर जितने घृणा के बीज बोए गए, उतने प्रेम के बीज नहीं बोए गए। यदि आज हम इस ऐतिहासिक यथार्थ को बदलने की दिशा में चलें तो हमारा नई दिशा में प्रस्थान होगा।
वैचारिक स्वतंत्रता को रोकना किसी भी दृष्टि से वांछनीय नहीं है। उस वैचारिक स्वतंत्रता के आधार पर ही अनेक धर्म-सम्प्रदाय विकसित हुए हैं। उनमें प्रायः सभी में प्रेम, मैत्री और अहिंसा की बात न्यूनाधिक मात्रा में कही गई है; किन्तु धर्म का आचरण बहुत कम हुआ है। उसका अनुगमन या अनुसरण अधिक हुआ है। हमारा ध्यान अनुयायियों की संख्या पर केन्द्रित है । आचरण पर केन्द्रित नहीं है। अनुयायी
और धार्मिक ये दोनों भिन्न हैं। अनुयायी करोड़ों हो सकते हैं। उनमें धार्मिक कितने हैं, यह विमर्शणीय बिन्दु है । अनुयायियों की संख्या अधिक और धार्मिकों की संख्या कम होने के कारण ही साम्प्रदायिक हिंसा को उत्तेजना मिलती रही है । क्या अहिंसा को विश्व-धर्म घोषित किया जा सकता है ? जहां हिंसा है,वहां धर्म नहीं है। धर्म वहीं है,जहां अहिंसा है। क्या यह अवधारणा साम्प्रदायिक कट्टरता से होने वाली हिंसा को रोकने में सफल हो सकती है? यह चिन्तन का एक बिंदु है। इस बिन्दु पर हमें चर्चा करनी है और किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयत्न करना है, जिससे धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर हिंसा को फैलाने का अवसर न मिले।
राज्य-सत्ता की अपनी उपयोगिता है। उसे समाप्त करने की बात सोची नहीं जा सकती। यदि सोची जाय तो वह कितनी व्यावहारिक हो सकती है, यह प्रश्नचिह्न ही है। किन्तु राज्यसत्ता के साथ हिंसा की बढ़ोत्तरी हो रही है, वह आज की जटिल समस्या है। शस्त्रीकरण को राज्यसत्ता का अनिवार्य सुरक्षा कवच माना गया है और माना जा रहा है। आज जिस गति से संहारक-शस्त्रों का विकास हो रहा है, उससे पूरी मानव जाति संत्रस्त है। निःशस्त्रीकरण की चर्चा चल रही है। इस कॉन्फ्रेन्स के साथ भी नि:शस्त्रीकरण की बात जुड़ी हुई है । यह कॉन्फ्रेंस जन-प्रतिनिधियों की है,राज्यसत्ता के प्रतिनिधियों की नहीं है। शस्त्रीकरण की शक्ति राज्यसत्ता के हाथ में है। क्या जन-प्रतिनिधियों की बात पर राज्य सरकारें ध्यान देंगी? शक्ति-संतुलन को विश्व शान्ति का आधार माना जा रहा है । उस स्थिति में राज्य सरकारें जन-प्रतिनिधियों की बात पर कैसे ध्यान देंगी? यह बात सहज ही तर्कसंगत लगती है,पर इस तर्क के सामने हमें निराशा की सांस नहीं लेनी है । जन-शक्ति शस्त्रीकरण की शक्ति से भी अधिक बलवान है । अहिंसा में आस्था रखने वाले यदि अपनी बात जनता तक पहुंचा सकें,
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