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जीवन विज्ञान और मस्तिष्क प्रशिक्षण
८७ विकास ही समाज को स्वस्थ रख सकता है।
मस्तिष्क के सभी उत्तरदायी केन्द्रों को एक साथ सक्रिय करना जरूरी है, जो वास्तविक मूल्यों के मूल स्रोत हैं। यही जीवन-विज्ञान की परिकल्पना का आधार है।
आज बौद्धिक विकास के लिए अलग से हमें चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आज के शैक्षणिक संस्थानों में बौद्धिक विकास के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है और उसके सुपरिणाम भी आ रहे हैं। यह सोचा जा सकता है कि विद्यार्थी की ग्रहणशीलता को कैसे बढ़ाया जा सकता है। इसके अनेक प्रयोग जीवन- विज्ञान प्रणाली के साथ जुड़े हुए हैं। बल्गेरिया में 'सुपर लरनिंग' की प्रणाली चलती है। उसका वहां बहुत विकास हुआ है। डा. लाजरनाव ने इसका विकास किया और इस पद्धति के द्वारा शीघ्र - ग्रहण की पद्धति विकसित हुई। एक पूरा क्रम चलता था सजेस्टालॉजी का। इसके लिए एक केन्द्र स्थापित किया गया और विद्यार्थी में इतनी क्षमता पैदा कर दी कि वह वर्ष भर का कोर्स एक महीने में पूरा कर देता है। वह दिनभर में ५००-७०० शब्द कण्ठस्थ कर लेता है। जीवन- विज्ञान में भी इस बात पर ध्यान दिया गया कि विद्यार्थी में ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाई जाए। जैन साहित्य में शिक्षा के बारे में अनेक सूत्र आए हैं। इसे दूसरे शब्दों में अवधान विद्या कहा जाता है। अवधान में क्षिप्र ग्रहण ही नहीं होता, बहुविध- ग्रहण भी होता है, सूक्ष्म- ग्रहण भी होता है। उपाध्याय यशोविजयजी अवधान विद्या के निपुण प्रयोक्ता थे। एक बार एक- सी सौ कटौरियां रख दी गईं। एक व्यक्ति उनको एक-एक कर बजाता और अवधानकार उन कटोरियों के शब्दों को ग्रहण करते । सौ कटोरियों का बजाना पूरा हुआ। फिर परीक्षा ली गई। बीच में से किसी भी कटोरी को वजाकर पूछा गया कि उसकी संख्या कौनसी है? आवाज के आधार पर संख्या बताई, वह सही निकली। यह है सूक्ष्म- ग्रहण की विधि। इसी के आधार पर आवाज का अलग अलग ग्रहण हो गया।
क्षिप्रग्राही, सूक्ष्मग्राही, बहुविधग्राही-ये सारे बौद्धिक विकास के परिचायक हैं। इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है. चरित्र के विकास की ओर
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