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जीवन विज्ञान और मस्तिष्क प्रशिक्षण
ध्यान दिया जाता है। पर सोचना यह है कि ग्रहण के जो मूल केन्द्र हैं मस्तिष्क के, जो सुप्त पड़े हैं, उन्हें कैसे जगाया जाए?
विद्यार्थी का व्यवहार, चरित्र और अनुशासन-इनको शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता। केवल बौद्धिक विकास को शिक्षा नहीं माना जा सकता। बौद्धिक विकास के साथ ये सारी बातें अविच्छिन्न
और अविभक्त रूप में जुड़ी हुई हैं। जैसे जैसे विद्यार्थी में बौद्धिक विकास हो, वैसे वैसे उसमें चरित्र, व्यवहार और अनुशासन का विकास भी हो। उसके जीवन में इन गुणों के मूल्य प्रतिष्ठापित हों। मूल्यात्मकता और शिक्षा--दोनों को कभी अलग नहीं किया जा सकता। जो सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्य हैं, उनको छोड़कर शिक्षा को भिन्न स्वतंत्र रूप में नहीं देखा जा सकता। इसलिए मस्तिष्क का वैसा प्रशिक्षण हो जिससे ये सारे मूल्य एक साथ संभाविता के रूप में विकसित हो सकें। इस दृष्टि से मस्तिष्क के सभी केन्द्रों को विकसित करना जरूरी है।
मस्तिष्क के दो पटल हैं । बायां पटल भाषा, तर्क, गणित आदि के लिए जिम्मेदार है और दायां पटल अन्तः प्रज्ञा, आध्यात्मिक चेतना, आन्तरिक प्रेरणा, स्वप्न आदि के लिए जिम्मेदार है। दोनों पटलों का संतुलित विकास न होने पर समस्याएं उत्पन्न होती हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बाएं पटल पर अधिक भार पड़ा हुआ है और दायां पटल सोया पड़ा है। दोनों का संतुलित विकास हो,तभी हम बौद्धिक विकास और चारित्रिक विकास-दोनों की कल्पना कर सकते हैं। यदि एक पटल का ही विकास हुआ, दूसरा सोया रहा तो समस्या कभी सुलझ नहीं पाएगी। आज शिक्षाशास्त्री, शिक्षक, शिक्षानीति और शिक्षा प्रणाली के सामने एक प्रश्न है कि बौद्धिक विकास के साथ व्यक्तित्व का विकास क्यों नहीं हो रहा है ? समाज को ऐसा व्यक्तित्व चाहिए जो समाज की समस्या को सुलझा सके। मूलतः मस्तिष्क का असंतुलन बना हुआ है। जीवन विज्ञान की प्रणाली का आधारभूत तत्त्व यह है कि मस्तिष्क का संतुलन केवल पढ़ने से नहीं हो सकता, केवल बुद्धि के द्वारा नहीं हो सकता। बुद्धि का कार्य है विश्लेषण करना, निर्धारण और निश्चय करना। चरित्र का निर्माण करना बुद्धि का काम नहीं है।
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