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८. २
जीवन विज्ञान: स्वस्थ समाज रचना का सकल्प
१. सब जीव समान हैं
२. हम सब एक हैं ।
इनके लिए दो आलम्बन - सूत्र हैं
'तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि' - वह तू ही है, जिसे तू मारना चाहता है ।'
'सव्वभूयप्पभूयस्स' - इसका तात्पर्य है, हम सब एक हैं । इन आलंबन- सूत्रों का निरंतर अभ्यास किया जाए, इनको बार बार दोहराया जाए, चिन्तन और मनन किया जाए तो यह बात अनुभूति में उतरने लगती है । यदि कोई व्यक्ति एक वर्ष तक ऐसा करे तो उसका संकल्प पकने की स्थिति में आ जाता है। शब्द से चलते-चलते आदमी अनुभूति तक पहुंच जाता है। चलता है शब्द से, पहुंच जाता है अनुभूति पर ।
पति परदेश गया हुआ था । पत्नी घर में थी । आठ-दस महीने बीत गए। कोई संवाद नहीं मिला। वह जानकारी करने के लिए तड़फती थी। अचानक एक दिन पत्र आया । पत्र पढ़कर उसने सारी स्थिति जान ली। इसमें माध्यम बना शब्द | वह स्थिति शब्द तक सीमित नहीं रही, अनुभूति में चली गई। शब्द के आधार पर सुख की अनुभूति भी की जा सकती है और दुःख की अनुभूति भी की जा सकती है।
आलम्बन शब्दात्मक हो सकते हैं, पर हम शब्द पर नहीं अटकेंगे। उसके माध्यम से अभ्यास करेंगे और चिन्तन-मनन करते करते अनुभूति तक चले जायेंगे । अनुभूति के स्तर पर जो घटित होता है वह हमारी परिवर्तन की भूमिका है। वहीं आदमी बदलता है । एक बार जिसको गहरे में अनुभव हो गया वह आदमी अवश्य बदलेगा । जो बात केवल रीजनिंग माइंड तक जाती है, कोन्शियस माइन्ड तक पहुंचती है वह बात अधिक स्थिर नहीं रह पाती। जो बात अनकोन्शियस माइन्ड तक पहुंच जाती है, वह छूटती नहीं, वह पकड़ ली जाती है। वहां पहुंचने के बाद आलम्बन छूट जाता है, शब्द छूट जाता है, केवल अर्थ बच जाता है । यह है शब्द से अर्थ तक की यात्रा ।
हमारी चेतना के दो स्तर हैं। एक है ज्ञान का स्तर और दूसरा
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